संस्मरण

संस्मरण

यूँ तो बात बहुत पुरानी है पर है पते की। 1970 के दशक का दौर था मेरे अनुज की शादी में राजदूत मोटर सायकल दहेज़ में मिलने वाली थी। उस वक्त सपने में सायकल ही बड़ी मुश्किल से आती थी यहाँ तो फड़फड़िया फड़फड़ा रही थी। दहेज़ जरुरत तो कभी न रहा हाँ सम्मान पर खूब चढ़ता-उतरता रहा है। खैर, वह दिन आ गया और तीन दिनों वाली बारात शामियाने में रात गुजार कर खिचड़ी खाने बैठ गई। दूल्हे के सामने सामानों की लड़ी लग गई, जिसमे राजदूत मोटर सायकल की चाभी इधर-उधर इरादतन सरककर खूब इतरा रही थी जिसपर लड़की के बाप का गुमान कुंडली मारे बैठा था तो लडके के बाप भी खूबे अकडे हुए थे, मानों पुछ रहें हो, है क्या आज मुझसे आगे कोई भी? घर में बहु तो बाहर वह खूब गुड़गुड़ा रही थी सबकी नजर में यही दोनों मुख्य किरदार थे क्या मजाल है कोई हाथ भी लगा ले। बाराती स्वादिष्ट भोजन में मस्त थे तो घराती आव-भगत में व्यस्त थे। अति सम्मानित लोग और औरतें नुक्ताचीनी में उलझे हुए थे और किसी भी रूप में इस शादी से सहमत नहीं थे तमाम पय उभरकर नाक भौंह सिकोड़ रहे थे। खैर, एक दूसरे की अच्छी किसे दिखती है जो उन्हें आज दिखाई दें। पर बेटी का बाप सबको यही दिखा रहे थे कि मेरी लड़की बहुत बड़े घर में जा रही है, कोई माने या न माने।

मैं खूब किस्मत वाला निकला कालेज के ज़माने में ही एक बड़ें बाप के बेटे की खड़खखिया हाथ लग गई और चालक बन बैठा। हुनर कोई भी हो मिले तो छोड़ना नहीं चाहिए यह बात मुझे तब पता चली जब नई नवेली गाड़ी की कील जैसी चाभी, मुझे इस कारण मिली कि मैं ही एकलौता वह आदमी था जिसे आर. टी. ओ. ने नहीं बल्कि गाँव के मेरे मित्रों ने उस दिन लाइसेंस दिया और मेरे घर वालों को बड़े गर्व से बताया कि भैया हर गाड़ी चला लेते हैं। बड़े शालीनता से मैंने वह तमगा ग्रहण किया मानों किसी बड़ी सस्था ने मुझे बहुत बड़ा एवार्ड दिया हो। बदले में मुझे उसकी साफ़ सफाई और किसी को कहीं जाने पर बिना तनख्वाह के ड्राइवरी करनी थी। कुछ भी हो पर जो शान-सम्मान मुझे लगा, उसे मै अल्फाजों में बयां नहीं कर सकता। यह अतिशयोक्ति नहीं कि पुरे रोड का मैं ही मालिक था और कोसों दूर तक मेरा एकछत्र राज था। कभी कभार कोई अनजानी मोटरसायकल निकल जाय तो निकल जाय अधिकतर जब फडफड़ की आवाज होती तो मैं ही मैं दिखाई देता। यह अलग बात है कि यह सौभाग्य कम ही मिलता कारण दरवाजे से अधिक दूर जाना मतलब पैसे से था और पैसे का दर्शन बिरले को ही होता था।

पंद्रह रूपया लीटर पेट्रोल था जो दस किलोमीटर बाद जाने पर ही किसी दुकान पर महकता था। दस बीस किलों गेंहू बनिया के वहां जाता था और गाड़ी रोड पर दनदनाती थी। हाँ जब कमवैया लोग गर्मी में आते थे तो यह कमी दूर हो जाती थी और बड़ी बड़ी बारात देखने का अवसर मिल जाता था। कहते हैं न कि पराई बहुरिया पर श्रृंगार न करों, मेरे साथ भी कुछ वैसा ही हुआ परिवार में अलग बिलग हुआ और उधार का अधिकार जाता रहा, इतना ही नहीं जाते जाते मेरी आदत भी बिगाड़ दिया और फिर कइयों साल सायकल का धुर्रा टूटता रहा। खड़ी-खड़ी ओ मुझे देख तरसती और मैं उसे, गहरा नाता रहा उससे, कभी कभार हाथ लग जाती तो कसक पूरी कर लेता। दुःख तब हुआ जब उसका सौदा हो गया और वह मेरे नज़रों के सामने ही मुझसे पराई हो गई। कइयों दिन तक मैं गुमसुम सा रहा पर नज़रों के सामने से कभी न हटी। समय ने करवट बदली मेरी दूसरी गाड़ी राजदूत ही दरवाजे पर आई, फिर एक से दो, दो से आज कई गड़ियां खड़ी रहती है। चारपहिया भी आ गई, एक से वह भी दो हो गई पर न उसका रुतबा लौटा नाही उसकी कसक मन से गई। अब तो बाइक चलाने पर बच्चों ने प्रतिबंध ही लगा दिया है और वह नश्ल भी तो नहीं दिखती की हाथ लगा लूँ और मन की आस पूरा लूँ।

महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी

*महातम मिश्र

शीर्षक- महातम मिश्रा के मन की आवाज जन्म तारीख- नौ दिसंबर उन्नीस सौ अट्ठावन जन्म भूमी- ग्राम- भरसी, गोरखपुर, उ.प्र. हाल- अहमदाबाद में भारत सरकार में सेवारत हूँ