कविता : उम्मीद
खुश नही रहता वो कभी,
बांधे फिरता है जो,
गठरी उम्मीदों की,
साथ वक़्त के ये,
बढ़ती जाती है,
होती जाती है,
और भी वजनी,
उठाये हुए जिसे,
टूटने लगते हैं कंधे,
उखड़ने लगती हैं सांसे,
दम भी घुटता है,
उठाये हुए अधूरे,
उम्मीदों की गठरी,
दुःख होता है अपार,
टूटती हैं जब उम्मीदें,
साथ में टूटता है,
लगाने वाला भी,
और शायद वो भी,
जिससे लगाई थी,
तकलीफ देता है बहुत,
उम्मीदों का टूटना,
बिखरने लगता है,
संग में वो भी,
और उसके रिश्ते भी,
हर उम्मीद की कली,
फूल नही बन खिलती,
इसलिए सोच समझकर,
पालनी चाहिए उम्मीदें,
बांधी जानी चाहिए,
हद उम्मीदों की,
डोर छोटी होगी जितनी ही,
उम्मीदों की पतंग की,
उलझेगी कम उतनी ही,
कट के गिरी भी अगर,
नही लगेगा वक़्त बेहिसाब,
सम्भलने में उसे,
फिर सम्भल जाए शायद,
एक और उम्मीद से पहले….।
— सुमन शर्मा