महर्षि दयानन्द के योग शिष्य स्वामी लक्ष्मणानन्द
ओ३म्
विस्मृत व्यक्तित्व
स्वामी लक्ष्मणानन्द जी ने स्वामी दयानन्द की अमृतसर यात्रा में उनसे योग सीखा था और उसके बाद उन्होंने योगाभ्यास व इसकी शिक्षा को ही अपने जीवन का मुख्य उद्देश्य बनाया प्रतीत होता है। आप आर्यजगत के विख्यात विद्वान पं. भगवद्दत्त रिसर्चस्कालर के भी गुरू रहे। ‘ध्यान योग प्रकाश’ आपकी योग पर महत्वपूर्ण कृति है जिसके अनेक संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। अन्तिम संस्करण रामलाल कपूर टस्ट्र, रेवली-सोनीपत-हरयाणा से कुछ वर्ष पूर्व प्रकाशित हुआ है जो वहां बिक्री के लिए उपलब्ध है। सम्प्रति हमारे पास भी इस ग्रन्थ के दो-तीन संस्करण विद्यमान हैं। अध्यात्म व योग का गहरा सम्बन्ध है। हमारा मानना है कि स्वामी दयानन्द ने समाज सुधार सहित समग्र सामाजिक क्रान्ति का जो महान कार्य किया उसके मूल में भी उनकी योग एवं वेद विद्या ही कारण है। अतः स्वामी लक्ष्मणानन्द जी पर उपलब्ध जानकारी से पाठकों को अवगत कराने का विचार हुआ, जिसका परिणाम यह पंक्तियां हैं।
स्वामी लक्ष्मणानन्द जी का जन्म अमृतसर के एक खत्री परिवार में विक्रमी संवत् 1887 (सन् 1831) में हुआ था। दो वर्ष की आयु होने पर ही लक्ष्मणानन्द जी के पिता का देहान्त हो गया। अनुमान कर सकते हैं कि माता ने कितनी कठिनाईयों से अपने पुत्र लक्ष्मणानन्द का पालन किया होगा। वह समय ऐसा था जब लोगों में धर्म-कर्म की बातों को आज की तुलना में कहीं अधिक महत्व दिया जाता था। सम्भवतः इसी कारण आपकी साधु-संन्यासियों की संगति में विशेष रूचि हो गई थी और धर्म-कर्म विषयक अनेक उचित अनुचित बातों का आपकों ज्ञान हो गया था। आपकी माता को आपकी यह रूचि पसन्द नहीं थी। कुछ बड़े होकर आपने धनोपार्जन करना आरम्भ किया और आपको अच्छी सफलता मिली जिससे आपकी माता की अप्रसन्नता दूर हो गई। आप विवाह के प्रति उदासीन रहे। कालान्तर में जब स्वामी दयानन्द जी अमृतसर में आये तो आपने न केवल वहां उनके प्रवचन ही सुने अपितु उनके पास जाकर योगाभ्यास सीखने की भी इच्छा की जिसका परिणाम यह हुआ कि स्वामी दयानन्द जी ने आपको योगाभ्यास की समस्त आवश्यक क्रियाओं का क्रियात्मक अभ्यास कराया। इस प्रकार स्वामी दयानन्द ही आपके योगगुरु हुए। आपने ब्रह्मचर्य से सीधे ही संन्यास की दीक्षा ली। डा. भवानीलाल भारतीय जी ने आपके संन्यास के विषय में लिखा है कि आपने सम्वत् 1943 अर्थात् सन् 1887 में संस्कार विधि की पद्धति से ही संन्यास की दीक्षा ली। आपके संन्यास गुरु कौन रहे होंगे, इसका उल्लेख हमें नहीं मिल सका। मूर्तिपूजा, तीर्थयात्रा, एकादशी व्रत आदि पौराणिक कर्मकाण्डों के प्रति आपमें आरम्भ से ही अरूचि थी। ऐसा भी उल्लेख है कि स्वामी दयानन्द से योग की दीक्षा लेने से पूर्व आपने पहले दो योगियों से योग का कुछ प्रशिक्षण प्राप्त किया था तथा स्वामी दयानन्द जी ने आपको अष्टांग योग की पूर्ण विधि सिखाई थी।
आर्य सिद्धान्तों का स्वामी लक्ष्मणानन्द जी पूरी तरह से पालन करते थे। उन दिनों आर्य पद्धति से परिवार के किसी सदस्य की अन्त्येष्टि करने पर जातिबन्धु विरोध करते थे और जाति बाह्य भी कर देते थे। हम देखते हैं कि जब पण्डित गुरुदत्त विद्यार्थी जी के पिता का देहान्त हुआ तो आर्य पद्धति से उनकी अन्त्येष्टि का उनके प्रायः सभी जाति बन्धुओं ने विरोध किया था। पं. गुरुदत्त जी की आर्य सिद्धान्तों व पद्धति में गहरी निष्ठा होने के कारण उन्होंने उसकी कोई परवाह नहीं की थी, अतः वह संस्कार वैदिक पद्धति से ही सम्पन्न हुआ था। कालान्तर में जब स्वामी लक्ष्मणानन्द जी की माता की मृत्यु हुई तो आपने संस्कारविधि वर्णित आर्य पद्धति से ही अपनी माता की अंत्येष्टि कर वैदिक सिद्धान्तों में अपनी गहरी निष्ठा व विश्वास का परिचय दिया।
स्वामी लक्ष्मणानन्द जी ने योग पर ‘ध्यान योग प्रकाश’ नाम से अपने अनुभवों पर आधारित पुस्तक लिखी है जिसका पहला संस्करण सन् 1902 में प्रकाशित हुआ था। इसके बाद सन् 1914, 1938, 1964 तथा 1976 में इसके अनेक संस्करण प्रकाशित हुए। इसका नया संस्करण रामलाल कपूर ट्रस्ट से कुछ वर्ष पूर्व ही प्रकाशित हुआ है और अब यही संस्करण पाठकों को बिक्री हेतु सुलभ है। हमारी दृष्टि में आपकी यह पुस्तक ही आपका स्मारक है। जो भी व्यक्ति इसे पढ़ेगा वह अवश्य इससे लाभान्वित होगा।
स्वामी लक्ष्मणानन्द जी का महर्षि दयानन्द का शिष्य होने व उनसे परिपूर्ण योग विद्या सीखने के कारण अपना ऐतिहासिक महत्व है। इसके साथ हमें इस बात ने भी प्रभावित किया है कि स्वामी लक्ष्मणानन्द जी आर्यजगत के प्रख्यात विद्वान पं. भगवद्दत्त जी के गुरु रहे हैं और इनकी शिक्षाओं का आपके जीवन पर गहरा प्रभाव हुआ। स्वामी लक्ष्मणानन्द जी के जीवन पर इससे अधिक जानकारी हमें प्राप्त न हो सकी। जितनी प्राप्त हुई, उसी से सन्तोष कर वह सामग्री हम पाठकों को इस भावना से भेंट कर रहे हैं कि स्यात् यह किसी को पसन्द आये।
–मनमोहन कुमार आर्य
मनमोहन भाई ,लेख अच्छा लगा . जब मैं इंडिया होता था तो मुझे पता ही नहीं था कि योग अभियास किया होता है . तभी १९६८ में मुझे एक अमेरीकन की लिखी किताब be young with yoga मिली जो अभी भी मेरे पास है . सभी आसन तो मेरे लिए कठिन थे लेकिन बहुत से आसन मैं आसानी से कर सकता था . अब जब कि मैं एक ऐसे रोग से गृहस्त हूँ जिस का कोई इलाज नहीं है लेकिन मैं जितना भी हो सकता है हलके से आसन करता हूँ और इन का फायेदा मुझे इतना हुआ है कि खुद मेरा डाक्टर हैरान है . डाक्टरों ने मुझे तीन से पांच साल दिए थे लेकिन अपनी हिमत से अब मुझे गिआह्र्वान साल है . १२ अप्रैल को मेरी हस्पताल में निओरोलिज्स्त से मुलाक़ात थी , उस के इन लफ़्ज़ों ने मुझे और पर्सन कर दिया , mr. bhamra you have done very well and you are my first patient ever to have survived in a remarkeble way . किओंकि मेरी स्पीच इतनी अच्छी नहीं है ,इस लिए मेरे बेटे ने बताया कि मेरे डैडी ने पांच एबुक्स पब्लिश की हैं तो स्टाफ नर्स ने ताली लगाईं . इसी लिए मैं कह सकता हूँ कि योग करना बहुत अच्छी बात है .
प्रिय गुरमैल भाई जी, आपकी छठी ई.बुक भी पब्लिश हो रही है. बधाई.
नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमैल सिंह जी। आपका योग विषयक अनुभव सराहनीय एवं अनुकरणीय है। मैंने इसे फेस बुक पर लेख में प्रस्तुत कर दिया है। श्रद्धेय भमरा जी, हमारे प्राचीन ऋषि मुनि मानवता के सच्चे मित्र थे। योग दर्शन की प्रत्येक बात सत्य सिद्ध हुई है। भारत में अनेक योगी हुवे हैं, उन्होंने योगाभ्यास किया परन्तु उनमे से किसी को योगदर्शन में कहीं कोई कमी नहीं दिखाई दी। ऋषियों की शिक्षा सत्य होने के साथ मनुष्यता के हित में ही होती है। ऋषियों को ईश्वर को प्राप्त करना होता है जिससे वह जन्म वा मृत्यु के दुःख से छूट जाए। बड़े रोग की चिकत्सा भी बड़ी वा जटिल होती है। इसी लिए महर्षि दयानन्द को जटिल रोग की चिकत्सा करनी पड़ी। यदि हम केवल योग को ही अपना ले तो मैं समझता हूँ कि हमारा कल्याण हो सकता है। यह भी बता दूँ कि योग में ईश्वर का ध्यान और समाधि भी शामिल है। इसके अनेक फायदे हैं। इससे मृत्यु का डर वा दुःख समाप्त हो जाता है। संसार के सभी लोग सुखी हो, यह वेद का सन्देश है। हमें भी यही अभीष्ट है। आपके शब्दों को पढ़ कर प्रसन्नता हुई। ईश्वर आपको स्वास्थ्य, सुख, बल वा शक्ति दे। सादर।
नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमैल सिंह जी। आपका योग विषयक अनुभव सराहनीय एवं अनुकरणीय है। मैंने इसे फेस बुक पर लेख में प्रस्तुत कर दिया है। श्रद्धेय भमरा जी, हमारे प्राचीन ऋषि मुनि मानवता के सच्चे मित्र थे। योग दर्शन की प्रत्येक बात सत्य सिद्ध हुई है। भारत में अनेक योगी हुवे हैं, उन्होंने योगाभ्यास किया परन्तु उनमे से किसी को योगदर्शन में कहीं कोई कमी नहीं दिखाई दी। ऋषियों की शिक्षा सत्य होने के साथ मनुष्यता के हित में ही होती है। ऋषियों को ईश्वर को प्राप्त करना होता है जिससे वह जन्म वा मृत्यु के दुःख से छूट जाए। बड़े रोग की चिकत्सा भी बड़ी वा जटिल होती है। इसी लिए महर्षि दयानन्द को जटिल रोग की चिकत्सा करनी पड़ी। यदि हम केवल योग को ही अपना ले तो मैं समझता हूँ कि हमारा कल्याण हो सकता है। यह भी बता दूँ कि योग में ईश्वर का ध्यान और समाधि भी शामिल है। इसके अनेक फायदे हैं। इससे मृत्यु का डर वा दुःख समाप्त हो जाता है। संसार के सभी लोग सुखी हो, यह वेद का सन्देश है। हमें भी यही अभीष्ट है। आपके शब्दों को पढ़ कर प्रसन्नता हुई। ईश्वर आपको स्वास्थ्य, सुख, बल वा शक्ति दे। सादर।
प्रिय मनमोहन भाई जी, स्वामी लक्ष्मणानन्द जी के जीवन से हम गुरु-महिमा, सिद्धांतों की दृढ़ता और योग का महत्त्व ही सीख पाएं, तो जीवन धन्य हो सकता है. एक सार्थक आलेख की प्रस्तुति के लिए आभार. हो सके तो अपनी ई.मेल आई.डी. उपलब्ध करवाएं.
नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद आदरणीय बहिन जी लेख पढ़ने के लिए। मैंने आज के दिन का शेष समय स्वामी लक्ष्मणानन्द जी की पुस्तक “ध्यान योग प्रकाश” के पढ़ने में लगाया। समय का सदुपयोग हुआ, ऐसा मुझे लगता है। आपके विचार अमृत समान उपयोगी एवं लाभदायक है। सादर। मेरा ईमेल है : [email protected]