आर्यसमाज की स्थापना के समय ऋषि दयानन्द द्वारा व्यक्त की गई आशंका
ओ३म्
महर्षि दयानन्द ने 10 अप्रैल, सन् 1875 के दिन मुम्बई के गिरगांव मोहल्ले में प्रथम आर्य समाज की स्थापना की थी। वर्तमान में यह आर्यसमाज काकाड़वाडी के नाम से प्रसिद्ध है। हमारा सौभाग्य है कि वर्ष, 1992 में एक बार हमें इस आर्यसमाज में जाने व वहां प्रातःकालीन यज्ञ में यजमान के आसन पर बैठने का अवसर मिला। आर्यसमाज अन्य धार्मिक संस्थाओं की तरह कोई संस्था या प्रचलित मतों की भांति कोई नवीन मत नहीं था। यह एक धार्मिक व सामाजिक आन्दोलन था जिसका उद्देश्य महाभारत काल के बाद वैदिक धर्म में आई अशुद्धियों, अज्ञान, अन्धविश्वासों व कुरीतियों आदि का संशोधन कर, वेद के आदर्श ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’ वा सत्य वैदिक मत का प्रचार कर उसको देश देशान्तर में प्रतिष्ठित करना था। यह सुविदित है कि जब महर्षि दयानन्द जी ने आर्यसमाज की स्थापना की, उस समय देश अंग्रेजों का गुलाम था। महाभारत काल के बाद लगभग 5,000 वर्षों से लोग अज्ञान, अन्धविश्वासों सहित गुलामी का जीवन बिताने के कारण वह कुरीतियों के एक प्रकार से अभ्यस्त हो गये थे। बहुत से लोगों को महर्षि दयानन्द के सुधार व असत्य मतों के खण्डन के पीछे मनुष्य व देशहित की छिपी भावना के दर्शन नही होते थे। उस समय की अवस्था के विषय में यह कह सकते हैं कि अधिकांश देशवासियों के ज्ञान चक्षु अति मन्द दृष्टि के समान हो गये थे जिसमें उनको अपना स्पष्ट हित भी दिखाई देना बन्द हो गया था और वह एक प्रकार से विनाशकारी मार्ग, अन्धविश्वास व कुरीतियों का मार्ग, पर चल रहे थे। उनमें से अधिकांश अपनी अज्ञानता व कुछ अपने स्वार्थों को बनायें व बचायें रखने के लिए उनका विरोध करते थे। ऋषि दयानन्द के विचारों व मान्यताओं में स्वदेश भक्ति वा स्वदेश प्रेम की मात्रा भी विशेष उन्नत व प्रखर थी। इस कारण अंग्रेज भी आन्तरिक व गुप्त रूप से उनके विरोधी व शत्रु थे। ऐसी परिस्थितियों में ऋषि दयानन्द ने व्यक्ति, समाज व देश के सुधार के लिए आर्यसमाज की स्थापना की। इस स्थापना के समय ही महर्षि दयानन्द ने आर्यसमाज से जुड़़ने वाले लोगों को एक चेतावनी भी दी थी जिसे हम आज पाठकों को ज्ञानार्थ प्रस्तुत कर रहे हैं।
महर्षि दयानन्द द्वारा इस अवसर पर कहे गये शब्द लिखित रूप में उपलब्ध हैं। वह स्थापना के समय उपस्थित सभी लोगों का आह्वान करते हुए कहते हैं कि ‘आप यदि समाज (बनाकर इस) से (मिलकर सामूहिक) पुरुषार्थ कर परोपकार कर सकते हों, (तो) समाज कर लो (बना लो), इस में मेरी कोई मनाई नहीं। परन्तु इसमें यथोचित व्यवस्था न रखोगे तो आगे गड़बड़ाध्याय (अव्यवस्था) हो जाएगा। मैं तो मात्र जैसा अन्य को उपदेश करता हूं वैसा ही आपको भी करूंगा और इतना लक्ष में रखना कि कोई स्वतन्त्र मेरा मत नहीं है। और मैं सर्वज्ञ भी नहीं हूं। इस से यदि कोई मेरी गलती आगे पाइ जाए, युक्तिपूर्वक परीक्षा करके इस को भी सुधार लेना। यदि ऐसा न करोगे तो आगे यह भी एक मत हो जायेगा, और इसी प्रकार से बाबा वाक्यं प्रमाणं करके इस भारत में नाना प्रकार के मत-मतान्तर प्रचलित होके, भीतर भीतर दुराग्रह रखके धर्मान्ध होके (आपस में) लड़के नाना प्रकार की सद्विद्या का नाश करके यह भारतवर्ष दुर्दशा को प्राप्त हुआ है इसमें, यह (आर्यसमाज) भी एक मत बढ़ेगा। मेरा अभिप्राय तो है कि इस भारतवर्ष में नाना प्रकार के मतमतान्तर प्रचलित है वो भी (व) वे सब वेदों को मानते हैं, इस से वेदशास्त्ररूपी समुद्र में यह सब नदी नाव पुनः मिला देने से धर्म ऐक्यता होगी और धर्म ऐक्यता से सांसारिक और व्यवहारिक सुधारणा होगी और इससे कला कौशल्यादि सब अभीष्ट सुधार होके मनुष्यमात्र का जीवन सफल होके अन्त में अपने धर्म (के) बल से अर्थ काम और मोक्ष मिल सकता है।’
महर्षि धर्म संशोधक ऋषि व समाज सुधारक महामानव थे। उनसे पूर्व उत्पन्न किसी धर्म प्रवर्तक वा समाज संशोधक ने अपने विषय में ऐसे उत्तम विचार व्यक्त नहीं किये। यदि किये भी होंगे तो उनके शिष्यों द्वारा उनका रक्षण नहीं किया गया। इन विचारों को व्यक्त करने से ऋषि दयानन्द एक अपूर्व निःस्वार्थ व निष्पक्ष महात्मा तथा आदर्श धर्म संशोधक समाज सुधारक ऋषि सिद्ध होते हैं। ऋषि दयानन्द ने जो आशंका व्यक्त की थी उसका प्रभाव हम आर्यसमाज के संगठन में देख सकते हैं। आर्यसमाज का संगठन गुटबाजी व अयोग्य लोगों के पदों पर प्रतिष्ठित होने से त्रस्त है। सभाओं में भी झगड़े देखने को मिलते हैं। इन्हें समाप्त करने के झुट पुट प्रयत्न भी हाते हैं परन्तु सफलता नहीं मिलती। इसका मूल कारण अविद्या है जिसे दूर नही किया जा सक रहा है। यही कारण है कि आर्यसमाज के सामने मनुष्य के जीवन व चरित्र के सुधार सहित जीवन निर्माण का जो महान लक्ष्य था, वह पूरा न हो सका। हम आर्यसमाज के सभी अधिकारियों व सदस्यों को ऋषि दयानन्द के उपर्युक्त विचारों पर ध्यान देने व विचार करने का अनुरोध करते हैं। यदि हमने ऋषि के सन्देश को समझ कर, अपनी अविद्या को हटाकर, उसको आचरण में ले लिया तो पूर्व की भांति आर्यसमाज सहित देश का कल्याण हो सकता है। इसी के साथ इन पंक्तियों को विराम देते हैं।
–मनमोहन कुमार आर्य
मनमोहन भाई ,लेख अच्छा लगा .आप के लेख से एक बात सामने आई है कि जब जब भी कभी किसी ने क्रान्ति लाने की कोशिश की है ,उस ने सच्चे दिल से कोशिश की है लेकिन बाद में आने वाली पीड़ी इस में कुछ रल गड कर देती हैं और आपसी झगडे होने शुरू हो जाते हैं जिस से उस नेक इंसान की, की हुई कोशिश बिफुल होने लगती है . एक सिख होने के नाते मैं तो सिर्फ सिखों में आई कुरीतीओं के बारे में ही जानता हूँ . शिरी गुरु गोबिंद सिंह जी ने पांच सिखों को अमृत छका कर खुद उन से छका ,यानी वोह गुरु भी और चेले भी बने ,इसी तरह . . …… मैं तो मात्र जैसा अन्य को उपदेश करता हूं वैसा ही आपको भी करूंगा और इतना लक्ष में रखना कि कोई स्वतन्त्र मेरा मत नहीं है। और मैं सर्वज्ञ भी नहीं हूं। इस से यदि कोई मेरी गलती आगे पाइ जाए, युक्तिपूर्वक परीक्षा करके इस को भी सुधार लेना।…………. यह वोह ही बात है कि वोह गुरु भी थे और चेले भी ,यही महान शाख्सीह्तों के लक्षण होते हैं .
नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमैल सिंह जी। आपके शब्द बता रहें हैं कि आपने लेख को बहुत ध्यान व खुले मस्तिष्क से पढ़ा है। यह आपका प्रेरणादायक एवं अनुकरणीय गुण हैं। आपकी बाते सत्य व यथार्थ है एवं प्रशंसा के योग्य हैं। स्वामी जी ने अपने अनुयायियों में ह्रदय खोलकर अपनी आशंका को प्रकट किया है। ज्ञानी मनुष्य व विद्वान से यही अपेक्षा की जाती है। हम लोग आजकल परमार्थ के मार्ग पर न चलकर एकमात्र भौतिक उन्नति के मार्ग पर चल रहें हैं जिसमे शुभ कर्मों की पूंजी यथा सन्ध्योपासना, यज्ञ, सेवा, परोपकार एवं दान को बहुत कम ही कोई अर्जित कर पाता है। आपकी सुंदर व ज्ञान से पूर्ण प्रतिक्रिया के लिए आपका हार्दिक आभार एवं धन्यवाद। सादर।
मनमोहन भाई ,लेख अच्छा लगा .आप के लेख से एक बात सामने आई है कि जब जब भी कभी किसी ने क्रान्ति लाने की कोशिश की है ,उस ने सच्चे दिल से कोशिश की है लेकिन बाद में आने वाली पीड़ी इस में कुछ रल गड कर देती हैं और आपसी झगडे होने शुरू हो जाते हैं जिस से उस नेक इंसान की, की हुई कोशिश बिफुल होने लगती है . एक सिख होने के नाते मैं तो सिर्फ सिखों में आई कुरीतीओं के बारे में ही जानता हूँ . शिरी गुरु गोबिंद सिंह जी ने पांच सिखों को अमृत छका कर खुद उन से छका ,यानी वोह गुरु भी और चेले भी बने ,इसी तरह . . …… मैं तो मात्र जैसा अन्य को उपदेश करता हूं वैसा ही आपको भी करूंगा और इतना लक्ष में रखना कि कोई स्वतन्त्र मेरा मत नहीं है। और मैं सर्वज्ञ भी नहीं हूं। इस से यदि कोई मेरी गलती आगे पाइ जाए, युक्तिपूर्वक परीक्षा करके इस को भी सुधार लेना।…………. यह वोह ही बात है कि वोह गुरु भी थे और चेले भी ,यही महान शाख्सीह्तों के लक्षण होते हैं .
प्रिय मनमोहन भाई जी, महान लोगों की यही तो विशेषता होती है, कि वे अपनी राय को किसी पर थोपते नहीं हैं और सभी को स्वतंत्र रहने देते हैं. ऐसे में उनके कथन प्रभावशाली हो जाते हैं. आप जैसे उनके शिष्यों को कोटिशः धन्यवाद, जो हमें नित्य अमृतपान कराते हैं. अति सुंदर आलेख के लिए आभार.
नमस्ते आदरणीय बहिन जी। आपने लेख के शब्दों को पसंद किया इसके लिए हार्दिक धन्यवाद। स्वामी जी ने तो भविष्य के प्रति अपनी आशंका व्यक्त कर दी थी परन्तु हम उनकी कसौटी पर खरे नहीं उतरे। सादर।