गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

तेरी चाहत मेँ अब भी महकता गुलाब है
क्यूं कहती है दुनिया कि ये चाहत खराब है

इस मीठे दर्द से बच सका ना कोई भी
कभी न छूटने वाली ये दर्द भरी शराब है

इश्क के मंजर में हम फिर भी डूबते गये
अब न कोई सवाल है, न कोई जवाब है

ये तेरा मुस्काना, आ जाना इतने करीब
मदहोश करती ये बातें, चढता शबाब है

टूट के चाहूं तुझे और बस तुझे ही पाऊं
ताउम्र पढती रहूं मैँ तू मेरी वो किताब है

न होगा जिक्र अब कहीं चाहत का किसी से
बैठे रहेंगे तेरे पहलू में, तू ही आफताब है

करता है हमें ये दीवाना खुद से ‘एकता’
कैसे कह दें हम कि ये जमाना खराब है

— एकता सारदा

*एकता सारदा

नाम - एकता सारदा पता - सूरत (गुजरात) सम्प्रति - स्वतंत्र लेखन प्रकाशित पुस्तकें - अपनी-अपनी धरती , अपना-अपना आसमान , अपने-अपने सपने [email protected]