कविता

बेटी का पिता

मानों स्वर्ग उतरा आँगन में कितनी हुई बधाई थी,
फूले नहीं समाते पिता बिटिया जिस दिन आयी थी,
भाग्यशाली समझते खुद को घर में आयी सीता,
लेकिन वे अंजान थे मैं हूँ एक बेटी का पिता।

जिगर की टुकड़े से एक पल हटती नहीं निगाहें,
हर ख्वाहिश पूरा करते झूला थी उनकी बाहें,
बाग की इस कली को बड़े स्नेह-प्यार से सींचा,
लेकिन वे अंजान थे मैं हूँ एक बेटी का पिता।

बेटी की हर सफलता पर कितने वे इतराते,
हर जन्म ये मेरी बेटी बने यही अरमान सजाते,
सीना चौड़ा हो गया मेरी बिटिया ने मुझको जीता,
लेकिन वे अंजान थे मैं हूँ एक बेटी का पिता।

बेटी का रिश्ता लेकर जब गये लड़के के घर,
सहम गये देखकर लड़का के पिता का अकड़,
कभी न झुकनेवाले का सर आज था नीचा,
शायद समझ में आ गया था मैं हूँ बेटी का पिता।

दिल के टूकड़े को दान करते हैं दहेज के साथ,
क्यों आज नीचे होता है देनेवाले का हाथ,
ऐ समाज के प्रवर्तक कभी किया है ये समिक्षा,
किस पाप की सजा पाते हैं बेटी के पिता।

– दीपिका कुमारी दीप्ति

दीपिका कुमारी दीप्ति

मैं दीपिका दीप्ति हूँ बैजनाथ यादव की नंदनी, मध्य वर्ग में जन्मी हूँ माँ है विन्ध्यावाशनी, पटना की निवासी हूँ पी.जी. की विधार्थी। लेखनी को मैंने बनाया अपना साथी ।। दीप जैसा जलकर तमस मिटाने का अरमान है, ईमानदारी और खुद्दारी ही अपनी पहचान है, चरित्र मेरी पूंजी है रचनाएँ मेरी थाती। लेखनी को मैंने बनाया अपना साथी।। दिल की बात स्याही में समेटती मेरी कलम, शब्दों का श्रृंगार कर बनाती है दुल्हन, तमन्ना है लेखनी मेरी पाये जग में ख्याति । लेखनी को मैंने बनाया अपना साथी ।।