ग़ज़ल : आज धीरे से
लगा है ज़ोर का झटका, चमन को आज धीरे से
परिंदों की उठी आवाज, स्वरों में दम मजीरे से
पत्तों का वजन कितना, जरा उस डाल से पुछो
हिले है साख साखों से, महज कुछ ही नजीरे से॥
जल छोड़ा न थल छोड़ा, न नभ छोड़ा बताओ तो
रसातल ले गए धरती भला, तुम किस जखीरे से॥
न कलरव हुआ न शोर ही, वह उड़ गई चिड़िया
लगा दोहरा शतक कैसे, सिपाही किस वजीरे से॥
गरजी कारगिल में तोप, बदनामी के बंदिश में
चापर हो गया गुमराह, नियत के चंद लकीरे से॥
गर वह आदमी होता तो, कुर्सी शरम कर जाती
सदन बन भेंडिया बैठा, छीनकर छाल अधीरे से॥
कहूँ क्या हाल क्या बोलू, यहाँ पैमाल मतदाता
भोगते नेता ही जन्नत, भुनाते लोकतन्त्र हीरे से॥
उठाकर फेंक दो इनको, चुनावी गोदाम हैं खाली
चेहरा सना भयानक धन, रंग दो काले अबीरे से॥
— महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी