“पानी”
नौजवान यह भारत देशा, पुनि कांहे को भरा कलेशा
धरती मांगे अंबर पानी, झूम रहें हैं राज नरेशा॥
कौतुक लागे देख विचारा, बाँधी डोर है खिचत धारा
असहाय हुआ काहें मानव, अवनि न आवत एकहि तारा॥
जल गागर भरि भरि कित लाऊं, होठ लगाऊँ आस बुझाऊँ
खींचू गाड़ी जलबिन जीवन, को विधि मन सागर छलकाऊँ॥
तरस मिटाऊँ कैस किसकी, बन बागों में आग लगी है
दूर दूर तक बरखा नाही, गरमी उमस अपार चढ़ी है॥
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी
बहुत सुंदर रचना आदरणीय!!
सादर धन्यवाद मित्र रमेश जी