दोहे
दोहे / शिव चाहर मयंक
मन्दिर मस्जिद के लिये,लगी जहाँ में आग।
सबकी अपनी बाँसुरी , सबके अपने राग।
जीवन भर करते रहे, हम उनका अपमान।
जिनसे हमको यश मिला, जिनसे है सम्मान।।
दोस्त वही है जो हमें, राह उचित दिखलाय।
सदगुँण का विस्तार हो, अवगुँण हमें बताय।।
दुख सुख का मेला लगा, सजा खूब बाजार।
मानवता का हो रहा, नित जग में ब्यापार।।
प्यासा तो प्यासा रहा, मिला उसे कब नीर।
जनता ब्याकुल रो रही, सुने न कोई पीर।।
सरगम सी आवाज थी, अब हैं कर्कश बोल।
कुर्सी मिलते ही खुली, नेता जी की पोल।।
जीवन की इस दौड ने कर डाला मजबूर।
खून पसीना एक कर, भूखा है मजदूर।।
उनका कोई घर नही, है हमसे ही आस।
पंक्षी प्यासे सोचते, बुझे कहाँ से प्यास।।
रब ने हम सबको दिया, जीवन का उपहार।
क्रोध मोह से क्यों भला, दूषित हो संसार।।
शिव चाहर मयंक
आगरा