चार लघुकथाएं
तिलक
पुरूषोत्तमजी बोले, ‘‘संध्या तो आपकी बेटी समान है, परसों हम लड़के वालों के यहां तिलक का दस्तूर लेकर जा रहे हैं, आप तो परिवार के सदस्य समान हैं, चलना ही है।‘‘ राजकिशोर बोले, ‘‘जी, मुझे गरीबों के यहां जाकर रहने खाने के लिए भार नहीं बनना‘‘ पुरूषोत्तम बोले, ‘‘पर उनका तो करोड़ों का व्यापार है, गरीब कैसे?‘‘ राज किशोर बोले, ‘‘इतना होते हुए भी तिलक में 11 लाख रूपए नगद मांग रहे हैं, मांगने वाला गरीब ही होता हैं।‘‘
भामाशाह
स्कूल कमेटी में वार्षिक उत्सव में मुख्य अतिथि के चयन पर निर्णय हेतु मंथन चल रहा था, ‘‘स्कूल के भामाशाह दान दाता यशपालजी को बुलाते हैं, स्कूल के बच्चों के प्रति उनका स्नेह भी है।‘‘ कमेटी अध्यक्ष बोले, ‘‘नहीं, यशपालजी तो बेवकूफ हैं, वे तो निःस्वार्थ दान हेतु अगले वर्ष फिर आ जाऐंगे, हम तो बिजली घर के प्रबंध निदेशक को बुलाऐंगे, सरकारी फंड से कुछ देने की घोषणा तो कर ही जाऐंगे।‘‘
जीवन
रेखा नाराज़ थी, ‘‘पिछले महीने ही तो मम्मीजी को आपने खून दिया था, एक महीने बाद ही झूठ बोलकर आज मेरे लिए फिर एक बोतल खून दे दिया, अपना भी तो ख्याल रखों।‘‘ नीहार बोला, ‘‘मेरा ख्याल रखने के लिए तुम दोनों हो ना, मुझे तो मम्मी का भी जीवन बचाना था, तुम्हारा भी, तुम दोनों स्वस्थ रहो, मां की सेवा करना मेरा कर्तव्य है, तुम्हें भी स्वस्थ रखना मेरा प्रेम है‘‘ रेखा भीगी पलकें पोंछ रही थी।
शोध
श्रीवास्तवजी के मित्र सलाह दे रहे थे, ‘‘शोध रिसर्च पी.एच.डी. से क्या मिलेगा? क्यों पैसा लगा रहे हो बेटी की रिसर्च में? नौकरी करवाते‘‘ श्रीवास्तवजी बोले, ‘‘बंधु नौकरी तो कभी भी कर लेगी, पी.एच.डी. की डिग्री तो उम्र भर कभी भी सहायक ही होगी, रिसर्च में लगा पैसा खर्च नहीं, निवेश है, पूंजी है, स्थायी सम्पत्ति है, मुझे गर्व है कि मेरी बेटी डा. मिली से पहचानी जाएगी।‘‘ पापा को सुनकर डा. मिली पलकें पोंछ रही थी।
— दिलीप भाटिया