काका की दुकान
दुकान काका की पुश्तैनी है,
पुरखों की वह निशानी है,
वह उन दिनों से उनकी है संगी,
जब परिवार पर छाई थी आर्थिक तंगी,
गाँव की वह सबसे बड़ी दुकान,
मिलता था जरूरत का हर सामान,
लाल-नीली-पीली चूड़ियाँ,
पहनने आती थी जब गाँव की बहू-बेटियाँ,
निर्भय सौंपती थी अपनी गोरी गोरी कलाइयां ,
काका की मजबूत हथेलियों में,
खोट रहित काका ,
पवित्र उनकी दुकान ,
उपलब्ध करवा रहे थे
सुहागिनों के श्रृंगार की
हर वस्तु ,
आलू ,प्याज, चावल
सब मिलता था ,
सबके लिए अन्नपूर्णा
बन गई थी दुकान,
सुबह-शाम रहता वहाँ जमावड़ा ,
रौनक ऐसी जैसे हो दिवाली रमजान,
सौम्य काका का व्यवहार,
कभी कभी दे देते थे उधार,
छत से लटकते
लाल-काले परांदे,
दीवार से सटी रहती
माथे की बिंदियाँ की लड़ियां,
शीशे में से झाकते ,
बच्चों को आकर्षित करते खिलौने ,
काउंटर पर रखे डिब्बों में
होती थी संतरी रंग की टौफियाँ,
एक डिब्बे में होती थी चुर्ण की गोलियां ,
एक में होते थे कंचे ,
एक में कलमें,स्लेटी,
काउंटर के साथ ही
लगी रहती थी
काका की कुर्सी ,
दुकान के एक कोने में
जमीन से
कुछ फुट पर बनी है
लकड़ी की एक सेल्फ,
जिस पर शोभायमान है
गांव के देवता की तस्वीर,
हर रोज पूजा से ही
शुरु होता है दुकान में काम,
काका का एक लड़का ,
व्यापारी है इरान में ,
दूसरा लड़का पेशेवर
डॉक्टर है जापान में,
यूँ तो आमदनी बहुत है,
मगर काका का
दुकान से मोहभंग
नहीं हुआ है..
सालों से जिस दुकान ने
उन्हें पाला पोसा ,
उसे छोड़ पाना काका के लिए
संभव नहीं है ,
वह तो आज भी
सुबह-सुबह आकर
खोल देते हैं दुकान,
पोंछते है हर डिब्बे पर
बैठी धूल को गमछे से,
बुहारते हैं फर्श को
खजूर की झाडू से,
पैसे कमाना
उनका ध्येय नहीं ,
वरन उस दिनचर्या को
कायम रखना जो थी
उनकी पिछले 50 सालों से,
चश्मे के पीछे से झांकती
काका की नजरें ,
आज भी स्पष्ट देख पाती हैं
उस अतीत को ,
जब वही दुकान थी
उनकी आय का एकमात्र स्त्रोत ,
उसे छोड़ कर,
उससे नाता तोड़कर ,
वह खुद को मन ही मन
स्वार्थी नहीं बनाना चाहते हैं,
काका को लगता है
जैसे अब उनसे हो रहा है
दुकान को जीवन का प्रसार,
काका को जान से प्यारी है
अपनी दुकान…..
— मनोज कुमार ‘शिव’
सुन्दर कविता मनोज जी