राष्ट्रीय सरिता-संयोजन
ऐतिहासिक दृष्टि से यदि विश्लेषण करें तो हम पाते हैं कि स्वतंत्रता के पूर्व से ही भारत में सरिता-संयोजन अर्थात् नदियों को जोड़ने संबंधी परियोजनाएँ मिलती हैं। बीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक दशक में भारत में नदियों को जोड़ने की प्रथम पहल ऑर्थर कॉटन ने की थी। हालाँकि इस पहल का कारण भारत का विकास करना कतई नहीं था बल्कि ऐसा करके ब्रिटिश सरकार भारत में गुलामी के शिकंजे को और सशक्त करने के साथ देश की बहुमूल्य प्राकृतिक संपदा का दोहन ही करना चाहती थी, क्योंकि उस समय भारत में सड़कों और रेल-मार्गो की संरचना अपने पहले चरण में थी, इसलिए अंग्रेज नदियों को जोड़कर जल-मार्ग विकसित करना चाहते थे।
देश के स्वतंत्र होने के तुरंत बाद भारत की विभिन्न नदियों को जोड़ने का सपना डॉ. मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया और डॉ राममनोहर लोहिया जैसी हस्तियों ने भी देखा था। इतिहास साक्षी है कि वर्ष 1971-72 में तत्कालीन केंद्रीय जल एवं ऊर्जा मंत्री तथा इंजीनियर डॉ कनूरी लक्ष्मण राव ने गंगा-कावेरी को जोड़ने का प्रस्ताव भी तैयार किया था। वैसे भी सरिताओं का आपस में संयोजन का मूल स्वभाव रहा है। अपनी नदियों को संरक्षित करने के लिए उनका न केवल उन्मुक्त प्रवाह आवश्यक है अपितु स्वभावानुसार नदियों के आपस में संयोजन द्वारा उनमें जल की पर्याप्त मात्रा बनाए रखना भी परमावश्यक है। देश की विशाल जनसंख्या के भरण-पोषण एवम् खाद्य सुरक्षा अक्षुण्ण बनाए रखने और प्रत्येक व्यक्ति को शुद्ध पेयजल उपलब्ध कराने में ऐसी परियोजनाएं अहम साबित हो सकती हैं।
जल मनुष्य की आधारभूत आवश्यकता है, इसे मानवाधिकार के अन्तर्गत रखा जाता है। भारत में गंगा, ब्रह्मपुत्र, गोदावरी, महानदी जैसी नदियों ने अपने जल से भारतीय जैव विविधता को सिंचित पल्लवित किया है। यह सर्वविदित है कि भारतीय कृषि मानसून पर आधारित है। देश में विषम मानसूनी वर्षा के कारण देश के विभिन्न क्षेत्रों में बाढ़ और सूखे का प्रकोप साथ-साथ होता है। कहीं नदियां अपने उफान पर होती हैं तो किसी नदी में जल के नाम पर सिर्फ कीचड़ बचा रहता है। इन विसंगतियों को दूर करने के लिए विश्व के कई देशों में किए गए सफल प्रयोगों के आधार पर भारत में भी नदियों को जोड़ने की एक महत्वाकांक्षी परियोजना का सपना पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने देखा था, ताकि देश के किसी भी किसान को सिंचाई के लिए जलाभाव का सामना नहीं करना पड़े।
हालाँकि, वाजपेयी जी की इस राष्ट्रीय नदी जोड़ो परियोजना का क्रियान्वयन नहीं किया जा सका था, क्योंकि इस योजना के औचित्य पर इतने प्रश्न खड़े कर दिये गये थे कि इसे आरम्भ कर पाना संभव ही नहीं हो पाया था। विशेषरुप से पर्यावरणविदों ने नदियों के प्राकृतिक प्रवाह में किसी भी तरह के कृत्रिम हस्तक्षेप का विरोध जताया था। इसके साथ ही, इस योजना के कार्यान्वयन हेतु वृहद धनराशि एकत्रित करने और भूमि अधिग्रहण जैसी चुनौतियाँ भी सामने आईं। इन्हीं विवादों के क्रम में यह योजना उच्चतम न्यायालय में विवाद के हल के लिए पहुंचा दी गई। अंततः, 28 फरवरी, 2012 को उच्चतम न्यायालय ने सरकार को नदी जोड़ो परियोजना को चरणबद्ध तरीके से क्रियान्वयित कराने के लिए अनुमति प्रदान कर दी।
उच्चतम न्यायालय के निर्णय के आने के बाद मध्य प्रदेश सरकार ने नर्मदा और क्षिप्रा को जोड़ने की 432 करोड़ रुपये की ‘नर्मदा-क्षिप्रा सिंहस्थ जोड़ उद्वहन’ नामक इस परियोजना को नियत समयावधि में पूरा किया। नर्मदा-क्षिप्रा जोड़ परियोजना का सफल क्रियान्वयन राष्ट्रीय सरिता समायोजन परिकल्पना की एक छोटी, परंतु बेहद अहम कड़ी साबित हुई है और भविष्य में अन्य बड़ी बड़ी नदियों को जोड़ने से सम्बद्ध परियोजनाओं के लिए एक प्रतिमान बनकर सामने आई है। इन दोनों नदियों के संयोजन के पश्चात् मध्यप्रदेश देश का ऐसा प्रथम राज्य बन गया है, जिसने नदियों को जोड़ने का ऐतिहासिक काम किया है। इस वर्ष सिंहस्थ की सफलता में नर्मदा-क्षिप्रा के समन्वयन का महत्वपूर्ण योगदान रहा है।
जल संसाधन मंत्रालय द्वारा तैयार की गई राष्ट्रीय दृष्टिकोण योजना में राष्ट्रीय जल विकास प्राधिकरण ने हिमालयी घटक के तहत 14 संपर्कों तथा प्रायद्वीपीय नदी घटक में 16 संपर्कों की पहचान की है। इनमें से प्रायद्वीपीय घटक के 14 और हिमालयी घटक के दो संपर्कों की संभाव्यता रिपोर्ट पहले ही तैयार की जा चुकी है। पांच प्रायद्वीपीय संपर्क में केन-बेतवा, पार्वती-कालीसिंध-चम्बल, दमनगंगा-पिंजल, पार-तापी-नर्मदा और गोदावरी (पोलावरम) – कृष्णा (विजयवाड़ा)। इनकी पहचान विस्तृत परियोजना रिपोर्टों को तैयार करने के लिए प्राथमिकता संपर्कों के रूप में की गई है। उच्च्तम न्यायालय के दिशानिदेर्शों के अनुरूप सरकार संबद्ध राज्यों से सलाह मशविरा कर नदियों को आपस में जोड़ने की योजना पर काम कर रही है।
ऊर्जा के दृष्टिकोण से भी सरिता-संयोजन परियोजना को अहम माना जा रहा है। इस दिशा में किए गए अध्ययनों से स्पष्ट हुआ है कि इस परियोजना से 30 हजार मेगावाट से ज्यादा पनबिजली उत्पादन की क्षमता तैयार हो सकती है। ऊर्जा उत्पादन क्षमता को लेकर कुछ संशय अवश्य हो सकते हैं लेकिन इसे नकारना किसी के लिए संभव नहीं होगा। राष्ट्रीय सरिता-संयोजन को ऊर्जा के लिए संभावनाओं के व्यापक भंडार तथा आंतरिक परिवहन के रूप में भी देखा जा सकता है।
— डॉ. शुभ्रता मिश्रा
वास्को-द-गामा, गोवा
बहुत अच्छा जानकारीपूर्ण लेख !