ऋषि दयानन्द के सत्यार्थ प्रकाश से भारत में अंग्रेजों के प्रति विद्रोह की भावना में वृद्धि हुई थी: डा. सोमदेव शास्त्री
ओ३म्
देहरादून के श्रीमद् दयानन्द आर्ष ज्योतिर्मठ गुरुकुल, पौंधा-देहरादून के तीन दिवसीय वार्षिकोत्सव के प्रथम दिन 3 जून, 2016 को सत्यार्थ सम्मेलन में आर्य विद्वान डा. सोमदेव शास्त्री जी का महत्ववपूर्ण व्याख्यान पाठकों के लाभार्थ प्रस्तुत कर रहे हैं।
डा. सोमदेव शास्त्री, मुम्बई ने सत्यार्थ सम्मेलन में अपने सम्बोधन में आर्यसमाज के द्वारा राजनीति में भाग न लेने के निर्णय को गलत बताया। उन्होंने कहा कि आर्यसमाज को देश की राजनीति में सक्रिय योगदान लेना चाहिये था। सत्यार्थ प्रकाश से जुड़ी एक घटना प्रस्तुत करते हुए उन्होंने बताया कि एक बार आर्यसमाजी नेता और दैनिक प्रताप समाचार पत्र के सम्पादक श्री वीरेन्द्र जी लन्दन की पब्लिक लाइब्रेरी में गये। उन्होंने वहां के मुख्य अधिकारी से पूछा कि क्या आपके पास सत्यार्थ प्रकाश पुस्तक ह? पुस्तक उनके सामने प्रस्तुत कर दी गई। वीरेन्द्र जी ने पूछा की इस पुस्तक के बारे में आपकी व आपके देशवासियों की क्या सम्मति है? उसने उत्तर दिया कि जब से यह सत्यार्थ प्रकाश पुस्तक प्रकाशित हुई है तब से भारत में अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह की भावना में वृद्धि हुई है। देश की स्वतन्त्रता व राजनीति में इस ग्रन्थ का महत्वूपर्ण योगदान रहा है।
डा. सोमदेव शास्त्री ने आगरा के ऋषि भक्त पं. भोजदत्त के उपदेशक विद्यालय की चर्चा कर बताया कि यहां ठाकुर अमर सिंह, कुंवर सुखलाल आर्य मुसाफिर, पं. महेश चन्द्र आलिम फाजिल तथा राहुल सांस्कृत्यायन जैसे लोग विद्यार्थी के रूप में पढ़े। इस विद्यालय की कीर्ति व यहां के स्नातकों के कार्यों से चिढ़कर बनारस का एक मौलवी पं. भोजदत्त जी की हत्या करने आगरा आता है। इस मौलवी गुलाम हैदर के विद्यालय पहुंचने पर पं. भोजदत्त जी दरवाजा खोलते हैं और मौलवी से पूछते हैं कि वह उनकी क्या सेवा कर सकते हैं? मौलवी जी ने सफेद कपड़े पहने हुए थे, उनके सिर व दाढ़ी के बाल भी सफेद थे और प्रभावशाली व्यक्तित्व था। उन्होंने पंडित जी से सत्यार्थप्रकाश की चर्चा करने का अपना आशय प्रकट किया। पंडित भोजदत्त जी ने उनका आतिथ्य किया और कहा कि आप विश्राम कर अपनी थकान उतार लें, फिर चर्चा करेंगे। मौलवी जी ने कुरआन पर चर्चा की और प्रश्न किये, पंडित जी उनके प्रश्नों का समाधान करते रहे। 1 घंटा व्यतीत हुआ, दो घंटे व्यतीत हुए फिर 3 घंटे व्यतीत हो गये और करते करते मौलवी जी के प्रश्न पूरे हो गये। मौलवी साहब उपदेशक विद्यालय आगरा में पांच-सात दिन रहे। विद्वान वक्ता ने बताया की कुरआन में छः हजार से अधिक आयतें हैं। जितने दिन मौलवी साहब विद्यालय में रहे, पंडित भोजदत्त जी एक-एक आयत की समीक्षा कर उन्हें समझाते रहे। शंकायें दूर होने के बाद मौलवी साहब ने अपना बक्सा खोला। उसमें से एक छूरा निकाला। मौलवी साहब ने वह छूरा पंडित जी को दिखाकर कहा कि मैं आपकी हत्या करने आया था परन्तु आपने बिना किसी छूरे के ही मेरी हत्या कर दी। अब मैं बनारस जाना नहीं चाहता। मौलवी साहब ने आग्रह पूर्वक वैदिक धर्म स्वीकार किया। शुद्ध होकर उन्होंने सत्य देव आर्य मुसाफिर नाम ग्रहण किया और आजीवन वेदों का प्रचार किया। आचार्य डा. सोमदेव शास्त्री जी ने कहा कि यह सत्यार्थप्रकाश का प्रभाव था।
सत्यार्थ प्रकाश के स्वाध्याय की चर्चा कर आपने स्वामी सर्वदानन्द सरस्वती जी का उल्लेख किया और बताया कि वह वेदान्ती साधु थे। उन्होंने कहा कि स्वामी जी एक बार बीमार हो गये तो एक आर्यसमाजी ने बड़ी लगन से उनकी सेवा की व उपचार कराया जिससे कुछ दिनों में स्वामी जी स्वस्थ हो गये। जब वह वहां से लौटे तो आर्यसमाजी सेवक ने उन्हें एक रेशमी कपड़े में लपेट कर एक पुस्तक भेंट की और निवेदन किया कि वह एक बार उस पुस्तक को अवश्य पढ़े। स्वामीजी ने अवकाश मिलने पर जब वस्त्र को खोलकर पुस्तक निकाली तो वह सत्यार्थ प्रकाश पुस्तक निकली जिसे देख कर उन्हें क्रोध आ गया और पुस्तक को दूर फेंक दिया। कुछ देर में उनका क्रोध शान्त हुआ तो उन्हें उस सेवक की सेवा याद आई जिसने बिना किसी स्वार्थ के उनकी जी जीन से सेवा की थी। उन्होंने सोचा कि पुस्तक पढ़ने में नुकसान ही क्या है। अतः उन्हें लगा कि उस भक्त व सेवक का अनुरोध पूरा करना चाहिये। उनके मन में यह विचार भी आया कि पुस्तक पढ़ने से हानि तो कुछ नहीं होगी, इसकी कमिया पता चलने से लाभ ही होगा। अपने भक्त की श्रद्धा को स्मरण कर आपने पूरा सत्यार्थ प्रकाश पढ़ डाला। स्वामी सर्वदानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश को ऐसा पढ़ा कि सदा के लिए दयानन्द व सत्यार्थ प्रकाश के होकर रह गये। उन्होंने साधु आश्रम अलीगढ़ की स्थापना की और आर्यसमाज की प्रशंसनीय सेवा। आचार्यजी ने स्वामी सर्वदानन्द जी के ग्रन्थ ‘सन्मार्ग दर्शन’ की चर्चा की और कहा कि यह स्वाध्याय का एक उत्तम ग्रन्थ है। डा. सोमदेव शास्त्री ने ऋषि भक्त पं. गुरुदत्त विद्यार्थी द्वारा सत्यार्थ प्रकाश को 18 बार पढ़ने का उल्लेख कर उनकी सम्मति से भी श्रोताओं को अवगत कराया। आपने कहा कि सत्यार्थ प्रकाश को पढ़ने से आप अन्धविश्वासों और पाखण्डों से बचेंगे। विद्वान वक्ता ने कहा कि कुछ सामयिक विषयों के ग्रन्थ होते है और कुछ ऐसे होते हैं जो मनुष्यों की दीर्घकालिक व जन्म-जन्मान्तरों की समस्याओं का समाधान करते हैं। सत्यार्थ प्रकाश ऐसा ही ग्रन्थ है। उन्होंने कहा कि सत्यार्थ प्रकाश सभी विषयों, शंकाओं और प्रश्नों का समाधान करता है।
विद्वान वक्ता ने फलित ज्योतिष रूपी पाखण्ड की भी चर्चा की। ऋषि दयानन्द जी का उल्लेख कर उन्होंने कहा कि ग्रह व उपग्रह किसी मनुष्य को सुख व दुःख नहीं दे सकते। सुख व दुःख हमें परमात्मा द्वारा अपने कर्मों के अनुसार मिलते हैं। विद्वान वक्ता ने कहा कि सभी ग्रह सूर्य के चारों ओर गति करते हैं। फलित ज्योतिष के ग्रन्थों का उल्लेख कर उन्होंने बताया कि इनके अनुसार यदि कोई बच्चा मूल नक्षत्र में पैदा हो जाये तो मान्यता फलित ज्योतिष की है कि उसका मुंह देखने से उसका पिता मर जायेगा। इस लिए ऐसे बच्चे को व पिता को दूर रखने का विधान किया गया जिससे वह एक दूसरे का मुंह न देख सकें। आचार्यजी ने बताया कि रामचरित मानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास जी भी मूल नक्षत्र में जन्में थे। फलित ज्योतिष के इन मिथ्या विचारों के कारण इन पिता व पुत्र को आठ वर्ष के लिए एक दूसरे से पृथक कर दिया गया था। इस अवधि में गोस्वामी तुलसीदास जी अपने एक रिश्तेदार के घर रहे। 8 साल बाद पिता ने अपने पुत्र का और पुत्र ने अपने पिता का मुख देखा। तुलसीदास जी ने इस पाखण्ड और अन्धविश्वास की पीड़ा को अपने ग्रन्थ कवितावली में प्रकट किया है। उन्होंने लिखा है कि मेरा जन्म दुर्भाग्य से युक्त रहा। मेरे जन्म पर घर में खुशी के गीत नहीं गाये गये। मिठाईयां नहीं बांटी गईं। मुझे घर से निकाल कर फेंक दिया। यह सब फलित ज्योतिष के कारण हुआ। डा. सोमदेव शास्त्री ने कहा कि सत्यार्थ प्रकाश हमें पाखण्डों से बचाता है। आपने ग्रहों के प्रभाव ससिहत पाखण्डों व अन्धविश्वासों की विस्तार से चर्चा की और कहा कि बिना दयानन्द जी के हमारा गुजारा नहीं है। फलित ज्योतिष वर्णित काल-सर्पयोग के प्रभाव व इसके निवारण हेतु नींबू और मिर्च के प्रयोग की उन्होंने चर्चा कर इसे मिथ्या व पाखण्ड बताया और कहा कि आज भी देश में अनेक पाखण्ड और अन्धविश्वास विद्यमान हैं।
अपने वक्तव्य को विराम देते हुए आचार्य डा.सोमदेव जी ने कहा कि सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ का स्वाधाय श्रद्धा से करें जिससे हम पाखण्ड से दूर होकर अच्छा जीवन व्यतीत कर सकें। इति।
–मनमोहन कुमार आर्य
प्रिय मनमोहन भाई जी, अति सुंदर. किसी भी ग्रंथ का श्रद्धा से स्वाध्याय सुफलदाई होता है, सत्य के अर्थ को प्रकाशित करने वाला ग्रंथ अति अनुपम है.
नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद आदरणीय बहिन जी। सुंदर व प्रेरणादायक कमेंट्स के लिए हार्दिक धन्यवाद।
मनमोहन भाई , लेख अच्छा लगा ,धर्म कोई भी हो ,अगर वोह लोगों को वहमों भरमों अंधविश्वासों से छुटकारा दिला दे तो वोह धर्म कामयाब है .
नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। ईश्वर ने मनुष्य का एक धर्म बनाया था। मनुष्य ने अपनी अज्ञानता के आधार पर उसे भूलकर देश काल परिस्थिति के अनुसार नाना मत मजहब पंथ संप्रदाय आदि बनाए और उन्हें आजकल धर्म बोलने लगे हैं। धर्म है ही वह जिसमे अज्ञानता, पाखण्ड, अन्धविश्वास, असमानता, शोषण एवं अन्याय आदि न हो। यह बात समझना और मानना कठिन नहीं है परन्तु कुसंस्कार वश लोग इसे समझने की कोशिश नहीं करते या जान कर भी अंजान बने रहते हैं क्योंकि मत व मजहबो से उसके अनुयायियों के कई काम या स्वार्थ सिद्ध होते हैं। सादर।