कलम चली
लिख देता हूँ लिखते लिखते, कलम चली तो चली चली
पढ़ कर मुझको जान किसी की, अगर जली तो जली जली
मटन पचाया दारु पीकर, फिर क्यों दाल पे हंगामा
चीख रहे घपले वाले सब, नहीं है जिनकी दाल गली
नदिया, पोखर, ताल, समंदर, पर्वत घाटी वादी सब
पत्ता पत्ता खुश दिखता है, हर्षित दिखती कली कली
मेरी भाषा कड़वी तो है, लेकिन इतनी चाहत है
हर इक आखर ज्योति बनकर, दीप जलाए गली गली
— मनोज “मोजू”