ग़ज़ल : तुम्हें गुरुर है अपने कान्हा पर
तुम्हे गुरुर है अपने कान्हा पर
हम भी कुर्वान अपनी जाना पर।
दिल देके भी वेवफाई मिली जिसको
फकीरा भी बने उसकी रुसवाई पर।
पर वो न मानी करती रही मनमानी
उसे गुरूर थाअपनी गोरी कलाई पर।
गोरे काले के भेद से रिश्ते नही चलते
रिश्ते चलते है दिलो की गहराई पर।
अरे वो क्या जाने कद्र कदरदानों की
जिसके कपड़े बदल जाते हर धुलाई पर।
वो इंसान भी ऐसे बदल लेते है
मतलवी पाला बदल लेते भलाई पर।
किस पे भरोसा करूँ , किस पे न करूँ
यहाँ तो कीमत मिलती हर वेवफाई पर।
फूंक फूंक के कदम रखना यारो
गफलत में पड़ न जाए पैर किसी खाई पर।
— कवि दीपक गांधी