मातृभाषा, विद्या और मातृभूमि की अर्चना देश की उन्नति का आधार
ओ३म्
देश व देशवासियों की उन्नति का प्रमुख आधार क्या है। इसका उत्तर हमें ऋग्वेद के मन्त्र संख्या 1/13/9 में मिलता है। मन्त्र है ‘इडा सरस्वती मही तिस्रो देवीर्मयोभुवः। बर्हिः सीदन्त्वस्रिथः।।’ इस मन्त्र में पद व शब्द आये हैं इडा, सरस्वती, मही, तिस्रः, देवीः, मयोभुवः, बहिर्ः, सीदन्तु तथा अस्रिधः। मन्त्र का पदार्थ अर्थात् शब्दार्थ है (इडा) वाणी (सरस्वती) विद्या (मही) मातृभूमि (मयोभुव) कल्याण करने वाली और (अस्रिधः) कभी हानि न पहुंचाने वाली (तिस्रः देवीः) तीन देवियें (बर्हिः) हमारे अन्तःकरण (में सीदन्तु) विराजमान हों। यह पदार्थ ऋषि दयानन्द जी के भक्त स्वामी अच्युतानन्द सरस्वती जी ने अपनी कृति ‘वेद ज्योति’ में किया है। इसका व्याख्यान करते हुए स्वामी जी कहते हैं कि प्रभु से प्रार्थना है कि दयामय परमात्मन् ! हमारे देशवासियों में इन तीन देवियों की भक्ति हो। 1. इडा अर्थात् अपनी मातृभाषा भाषियों के साथ मातृभाषा में बातचीत करना। 2. लोक, परलोक, जड़, चेतन, पुण्य, पाप, हित, अहित, कर्तव्य व अकर्तव्य को बताने वाली सच्ची विद्या सरस्वती (की भक्ति हो)। 3. मही अर्थात् अपनी जन्मभूमि के वासी अपने बान्धवों से प्रेम। यह तीन देवियां मनुष्य को सदा सुख देने वाली हैं, कभी हानि करने वाली नहीं हैं। हर एक मनुष्य के अन्तःकरण में, इन तीनों देवियों के प्रति भक्ति होनी चाहिए। जिस देश के वासियों की इन तीन देवियों में प्रीति होगी, वह देश उन्नत होगा। जिस देश में इन तीन देवियों में भक्ति नहीं है, जिनका अपनी भाषा और विद्या से प्रेम नहीं, अपनी मातृभूमि और मातृभूमि में बसने वालों से प्रेम नहीं, वह देश अवनति के गढ़े में पड़ा रहेगा।
महाभारत काल से भारत का पतन आरम्भ हुआ। महाभारत काल तक हमारा देश केवल संस्कृत भाषी था। कालान्तर में भाषा की देवी ‘इडा’ का सन्मान न करने के कारण संस्कृत से हीन होकर बहुभाषा-भाषी बन गया। अतः ईश्वर की वेदाज्ञा का विरोध होने से देश का पतन तो होना ही था। इसके कारण देश में अज्ञान व अंधविश्वास बढ़े और देश गुलाम हुआ। देश की उन्नति का दूसरा कारण होता है विद्या की देवी ‘‘वेद” की भक्ति। वेदों की भक्ति के क्षेत्र में भी देशवासियों का घोर पतन हुआ। इसने भी देश में अविद्याजन्य मत-मतान्तरों, पाखण्ड व अन्धविश्वासों को जन्म देकर देश को अवनत व अपमानित किया। तीसरी देवी मही अर्थात् मातृभूमि का वन्दन होती है। देश में मातृभूमि का वन्दन कर पाषाण पूजा का प्रचलन हुआ। इससे भी देश का ह्रास हुआ। यदि ऐसा न हुआ होता तो भारतवासी कभी परकीय देशों के लोगों को अपना राजा, शासक व आधीश स्वीकार न करते।
महर्षि दयानन्द ने ऋग्वेद के इस मन्त्र का महत्व जाना और अनेकानेक ग्रन्थ लिखकर भाषा के गौरव से हमें परिचित कराया। उनकी उत्तराधिकारिणी संस्था आर्यसमाज ने देश में संस्कृत व हिन्दी का प्रचार कर देश की आत्मा को जगाया। वेदों के प्रचार से देशवासियों की आत्मा बलवान बनी। इसने स्वामी श्रद्धानन्द, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, पं. लेखराम, महात्मा हंसराज, लाला लाजपतराय, स्वामी दर्शनानन्द, पं. रामप्रसाद बिस्मिल, पं. श्यामजी कृष्ण वम्र्मा, वीर सावरकर, चन्द्र शेखर आजाद, वीर भगत सिंह आदि अनेक देशभक्त पुत्र दिये। मातृभूमि का वन्दन भी ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश, आर्याभिविनय, वेदभाष्य व संस्कृत वाक्य प्रबोध आदि ग्रन्थों के माध्यम से किया। महर्षि दयानन्द द्वारा जो कार्य किया गया, वह कार्य उनसे पूर्व व उनके बाद किसी अन्य ने नहीं किया। कोई उनके समान नहीं हुआ, उनसे अधिक होने का तो प्रश्न ही नहीं है। उनके कार्यों व जागृत देशवासियों के त्याग व बलिदान से देश जागा और स्वतन्त्र हुआ। वेद में की गई आज्ञा का कार्य आज भी अधूरा है। यदि देशवासी इस मन्त्र के भावों को हृदयगंम व आत्मसात कर लें, तभी भारत विश्वगुरु का प्राचीन गौरव प्राप्त कर सकता है। इस मन्त्र के विचारों व भावों में देश को उन्नत करने की शक्ति विद्यमान है। इसी भावना से हम यह विचार पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत कर रहें हैं। स्वामी अच्युतानन्द जी ने इस मन्त्र को अपने लेखन में सम्मिलित कर मानवजाति का उपकार किया है। परम पिता परमात्मा का हार्दिक धन्यवाद। वेद माता की जय। महर्षि दयानन्द की जय। संस्कृत, हिन्दी, वेद और मातृभूमि आर्यावत्र्त-भारत की जये। इति।
–मनमोहन कुमार आर्य
मनमोहन भाई , लेख अच्छा लगा .
नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद आदर श्री गुरमैल सिंह जी। मुझे लगता है कि वेदो के भाषा, विद्या की मात सरस्वती एवं जन्भूमि के बारे में जो विचार हैं वह शास्वत है। इनसे कोई इंकार नहीं कर सकता। सादर।
प्रिय मनमोहन भाई जी, अति सुंदर आलेख के लिए आभार.
नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद आदरणीय बहिन जी।