कविता : चिठ्ठियाँ
दूर सियाचिन के ग्लेशियरों से
जब भी आती थी
फौजी दोस्त की चिठ्ठियाँ
मीलों के फासलों के दरम्याँ भी
ख़त पढ़ते ही लगता था
आया हूँ उसी क्षण
उससे मिलकर l
शून्य से नीचे के तापमान में
शब्द कभी जम नहीं पाए
वो पाते रहे आकार
अहसास और भावनाओं के ताप से
आज भी संजोये हुआ हूँ
वो पुरानी चिठ्ठियाँ
धुंधले पड़ गए है शब्द
नर्म पड़ चुके
और गले हुए कागज़
बचाए हुए हैं अपना वजूद
जैसे – तैसे l
दोस्त अब हो गया है
सेवा निवृत्त
पुनः मुस्तैद है
जीवन के एक और मोर्चे पर
परिवार से दूर बिताए वक्त की
भरपाई आवश्यक है
मैंने भी लांघी हैं
घर की दहलीज
रोजी के जुगाड़ में
अब बोलबाला है इन्टरनेट
एवं सूचना क्रान्ति का
व्हाट्स एप्प और फेसबुक की
आभासी दुनिया में
बेशक मित्रों की लंबी कतारें हैं
नदारद है मगर
अपनापन और संवेदनाएं
आत्मीयता खो चुकी है अर्थ !
अब मैं भी
नहीं लिख पाता चिठ्ठियाँ
इन्तजार डाकिये का भी
नहीं रहता अब
मगर चिठ्ठियों के
उस दौर की
टीस उठती है
आज भी जेहन में
जिसे लील गए हैं
विज्ञान के ये आधुनिक
मगर
संवेदनहीन दूत
— मनोज चौहान
सुन्दर कविता .
आभार सर ….!