कविता : हम्माल
तपती धूप में वो ठेला धकाता था
नहाने को पानी नहीं था
रोज पसीने से नहाता था
घर को चलाने में पैसा अहम था
खाने वाले चार थे वो अकेला कमाता था
बच्चे की पुस्तक भी लानी थी
पत्नी की बिंदी भी लानी थी
उसकी चप्पल घिस गई थी
पहन रखी जो बहुत पुरानी थी
सारा दिन कठोर परिश्रम
तेज धूप में मेहनती काम
फिर भी नहीं मिल पाता था
उसे मेहनत का सही दाम
कई जिन्दगी जुड़ी थी उससे
अपना दुखड़ा कहे वो किससे
सुबह उठ कर काम पर जाता
तब शाम को घर चुल्हा जलता
महँगाई के इस दौर में भी किस तरह जी रहा है वह
आप और मैं नहीं जानते सिर्फ वही जानता है वह
— शिवेश अग्रवाल ”नन्हाकवि”