मेरे पापा
याद तो रोज़ आते हैं
उन्हें हम कब भुला पाते हैं
जब कोई लेता है नाम मेरा
नज़र आते हैं पापा…
मम्मी की फीकी हँसी
सूने माथे और
सादी साड़ी में लिपटे
नज़र आते हैं पापा…
पूरे घर में दादी
भइया भइया करती
फिरतीं थीं मेरे आगे पीछे
नज़र आते थे पापा…
सुबह सवेरे जब
देखूँ शीशे में चेहरा
जुड़ी भौवों और गहरी आँखों में
नज़र आते हैं पापा…
मम्मी की हर डाँट
उनकी हर पुचकार पर
देहरी के उस पार
नज़र आते हैं पापा …
हर शाबाशी हर थपकी में
देते आशीर्वाद
होते गदगद
नज़र आते हैं पापा…
अपने आँगन
घर की छत
और हर एक दीवार में
नज़र आते हैं पापा…
मेरी खुशी के इंतज़ार में
गम को दूर भगाते
नम आँखों के साथ
नज़र आते हैं पापा…
*
कि कुछ एहसास वक्त बनकर लगातार साथ चलते हैं….!!
— शिप्रा खरे
प्रिय सखी शिप्रा जी, कुछ एहसास वक्त बनकर लगातार साथ चलते हैं. अति सुंदर व सार्थक रचना के लिए आभार.
आपके स्नेह के लिये हृदयतल से आभार दी