ग़ज़ल
सहर का ख़ाब देखा तीरगी में
ख़ुशी से चीख़ उट्ठा बेख़ुदी में
हुआ हैरान जुगनू देख कर मैं
मुसलसल जी रहा था तीरग़ी में
उलझ कर रह गए सारे मसाइल
तेरी मासूम आँखों की नमी में
सदाओ ! तुम रखो होठों पे ऊँगली
अभी खोया हूँ मैं इस ख़ामुशी में
उबल उट्ठा अचानक सर्द पानी
गिरी इक बूँद आँखों से नदी में
चुराया तो था हमने चाँद लेकिन
वहीँ पर छोड़ आये हड़बड़ी में
ज़रा सा ग़ौर करके फैसला लो
दिखेगा क्या निगाहे – सरसरी में?
ज़रा सा सब्र ‘कान्हा’ और रक्खो
सहर होने को है कुछ देर ही में
— प्रखर मालवीय “कान्हा”
ग़ज़ल अछि लगी .