पंडित लेखराम जी की निर्भीकता
पंडित जी जहाँ एक ओर असाधारण विद्वान थे वहां दूसरी और वे एक वीर शहीद की भांति निर्भीक और साहसी भी थे। मेरे एक मित्र ब्रहम समाज के नेता ने उनका नाम “आर्यसमाज का अली” रखा था।
अपने विवाह के बाद एक दिन मैं लाला मुंशीराम जी के निवास स्थान पर बैठा था। उन दिनों वे लाला जी कहलाते थे। उसी समय पंडित लेखराम जी उनसे मिलने उनके घर आये। लाला मुंशीराम जी उनदिनों आर्य प्रतिनिधि सभा के प्रधान थे और पंडित लेखराम जी उस सभा के एक वैतनिक उपदेशक। आज आर्य समाज के अनेक अधिकारी आर्यसमाज के वास्तविक आजन्म सेवक को, जो असल में आर्यसमाज के प्राण हैं, केवल इसलिए सभा का वेतन भोगी सेवक समझते हैं क्यूंकि अपना सम्पूर्ण समय आर्यसमाज की सेवा में व्यय कर देने के कारण उनके लिए सभा से आजीविका मात्र वृति लेना आवश्यक होता हैं, परन्तु उन दिनों यह बात न थी। प्रतिनिधि सभा उन दिनों उपदेशकों का मान करना जानती थी। यहाँ तक की सभा के अधिकारी प्रभावशाली प्रचारकों से चुपचाप डांट खाने में भी अपनि मानहानि नहीं सनाझते थे। जब पंडित लेखराम जी माकन पर आये तब प्रधान जी उठे और पंडितजी के उठने के बाद ही बैठे।
नमस्कार आदि के बाद प्रधान जी ने कहा “सभा के कार्यालय से सूचना दी गई थी की इस सप्ताह आप …..नगर में प्रचार के लिये जावेंगे, परन्तु अब आपका प्रोग्राम बदल दिया हैं, अब आप … जायेगा।”
पंडित जी ने पुछा “यह किसलिए” ?
प्रधान जी ने उत्तर दिया की ” मुझे विश्वस्त सूत्र से विदित हुआ हैं की ….. के मुस्लमान आपके प्राण लेने का कुचक्र रच रहे हैं। यदि आपको अपने जीवन की चिंता नहीं तो मुझे तो उसकी चिंता करनी चाहिए न।”
न मालूम क्यूँ पंडित जी को क्रोध आ गया। वे असाधारण जोश में आकर बोले लाला जी,” आप जैसे डरपोक यदि संस्था में बहुत अधिक बढ़ गये, तो आर्यसमाज का बेड़ा अवश्य डूब जायेगा”। मैं मरने से नहीं डरता। अब तो मैं अवश्य ही वहीँ जाऊँगा।
प्रधान जी तब भी मुस्कुरा रहे थे। इस बार उन्होंने नियंत्रण से काम लेना चाहा। उन्होंने कहा ,”मैं सभा के प्रधान की हैसियत से आपका ….. जाना आवश्यक समझता हूँ, इसलिए मैंने आपका प्रोग्राम बदल दिया हैं। मेरी आपसे प्रार्थना हैं की अब आप बताये हुए प्रोग्राम का ही अनुसरण करे”।
इस पर पंडित जी ने जरा नर्म आवाज़ में जवाब दिया, परन्तु उनकी जिद्द उसी तरह कायम थी। उन्होंने कहा ,”मुझे मालूम हैं की आपको मुझसे बहुत मोह हैं, उस मोह में कायरता पूर्ण वकालत मिलकर आप मुझे …… न जाने के लिए बाधित करना चाहते हैं, परन्तु मैं यह स्पष्ट शब्दों में कह देता हूँ की अब तो जरुर वहीँ जाऊँगा। यदि आप मुझे सभा की तरफ से नहीं भेजेगे तो मैं अवैतनिक अवकाश लेकर अपने किराये से वहाँ जाऊँगा”।
मुझे स्मरण हैं की उन दिनों पंडित जी सभा से केवल ५० रुपये मासिक वेतन पाते थे। प्रधान जी भला उनकी इस निर्भीक घोषणा का क्या जवाब देते? उन्होंने केवल इतना ही कहा। “आप जहाँ चाहे जा सकते हैं अब मैं आपको किसी भी बात के लिए बाधित नहीं करूँगा। सचमुच हमारी सभा का यह सौभाग्य हैं की आप जैसे वीर पुरुष की सेवा उसे प्राप्त हैं।”
— डॉ विवेक आर्य