ज़िंदगी कुछ ख़फ़ा सी लगती है
ज़िंदगी कुछ ख़फ़ा सी लगती है,
रोज़ देती सजा सी लगती है।
रोज़ देती सजा सी लगती है।
रौनकें सुबह की हैं कुछ फीकी,
शाम भी बेमज़ा सी लगती है।
शाम भी बेमज़ा सी लगती है।
राह जिस पर चले थे हम अब तक,
आज वह बेवफ़ा सी लगती है।
आज वह बेवफ़ा सी लगती है।
संदली उस बदन की खुशबू भी,
आज मुझको कज़ा सी लगती है।
आज मुझको कज़ा सी लगती है।
दर्द जो भी मिला है दुनिया में,
यार तेरी रज़ा सी लगती है।
…© कैलाश शर्मा