कविता : आज का मानव
आज का मानव ,मानव को
इसी तरह खा रहा है
जिस तरह किट-पतंगे (दिमक)
घर की दीवारों को खा जाते है..
फर्क बस इतना है
की मानव मानव को खाता नहीं
रोंद रोंद कर तड़फने को
विवश कर देता है..
वह रोंद्ता है उसे
दहेज़ की आग में
बाल विवाह के अत्याचार में
मुर्त्यु -भोज की शान में
और रोंद रहे है वे धर्म की आड़ में
दिखावे की झूठी शान में !
सदियों से चला आ रहा
ये सिलसिला यूँ ही चलता रहेगा
या कभी क़यामत की शाम भी बनेगा ?
या मानव मानव को
इसी तरह रोंद्ता रहेगा..!!
पर आखिर कब तक..??
— स्वाति (सरू) जैसलमेरिया