कविता : इश्क
अब ये इश्क़ भी अजीब लत है
तेरे ख़याल मुझे रंग देते हैं
हर पल एक नए रंग में
या एक पल में हर रंग में
भुला देते हैं ये मुझे
मेरा वजूद और वो बंधन
जिन से मैं बंधा हूँ
आख़िर ये इश्क़
ये ख़्वाबों में जीने की लालसा
कहीं खो जाने का अंदाज़
एक चाहत
और शायद इसमें मिला होता है
वासना का रंग
देखो ना
जब मंज़िल तक
पहुँच जाते हैं
तो समझौते होने लगते हैं
वो मुक्त उड़ान खो जाती है कहीं
परिस्थितियां घेर लेती हैं
इश्क़ जीत का जुनून है
जो जीत के साथ ही ख़त्म होने लगता है
और एक नया दौर शुरू होने लगता है
समझौतों का …….
फिर से दिल ढूंढने लगता है
वो स्वछंद ख़्वाबों की दुनियाँ
वो उड़ान
और वो पा लेने की लगन
— मोहन ‘इंतज़ार’