कौन सी बात लिखूँ
कौन सी शाम की बात लिखूँ
हुई थी या नहीं वोह मुलाक़ात लिखूँ
ढलते हुए शाम के साये में
उभरते हुए जज़्बात लिखूँ
अँधेरे खड़े थे लेकर रातों का सहारा
लड़खड़ाते कदमों से कैसे लिखूँ
बंध थे सारे मयखाने के दरवाज़े
लरज़ते हाथो से कैसे फ़रियाद लिखूँ
अदब से खड़े थे अलफ़ाज़ खयालों के पीछे
कौन सा ख्याल छुपाऊँ और कौन सा लिखूँ
अक्सर कलम की जगह ले लेती है शमशीर
जब जब हथेलियों पर तेरा नाम लिखूँ
हुस्न बेपर्दा भी देखा है मैंने
चमक उसके नूर की कैसे मैं लिखूँ
हसीन थी घड़ियाँ और मजबूर थे लम्हे
एक ही पन्नें पर दोनों कैसे लिखूँ !
— अखिलेश पाण्डेय