ऐ मेरे हमसफ़र
क्या खूब क़त्ल तुम
हर रोज कर रहे हो
न शक की कोई गुंजाइश
न सबूत छोड़ रहे हो
ऐ मेरे हमसफ़र
बस ख़ौफ़ के खंजर
हर रोज घोंप रहे हो।
भय के आवरण तले
दबी है ये जिंदगी
जीने की अभिलाषा
दम तोड़ रही हर पल
ऐ मेरे हमसफ़र
हलक में शराब की बोतल
क्यों रोज उड़ेल रहे हो।
परवाह करती हूँ तुम्हारी
इसलिए ये दर्द सहती हूँ
खोने से भी तुमको
दिन रात डरती हूँ
ऐ मेरे हमसफ़र
मेरे प्यार में विष तुम
हर रोज घोल रहे हो।
कशमकश में है ये जिंदगी
तू ही मेरी जरुरत हो
एक दोस्त की बस चाहत है
कुछ और ना चाहूँ तुमसे
ऐ मेरे हमसफ़र
मेरी चाहत के पर को तुम
हर रोज कुतर रहे हो।
मेरी जिंदगी में तुम
प्यार हो या भूल बैमानी
साथ तेरे भी मैं तन्हा हूँ
हमसफ़र को ही नहीं जानी
ऐ मेरे हमसफ़र
आँसुओ में मेरी रातों को
हर रोज डुबा रहे हो।
— सुचि संदीप
तिनसुकिया,असम
अंतर की पीड़ा की बहुत ही मार्मिक तरीके से दिगदर्शन
बधाई हो।
वाह वाह , बहुत खूब !
आभार।