मरीचिका संजोए
कितनी लयबद्ध है
ट्रेन की
छूक छूक की आवाज
ठीक वैसे
जैसे कदम ताल करते
स्कूली बच्चे
और फिर इसका
पहाड़ों के बीच से गुजरना
पिछली रात
बरखा रानी भी
बरसी है झूम झूम
जल से संतृप्त
चहु दिशाये
कहीं कहीं बादल
उतर आए है
पर्वत श्रंखलाओं के
चोटियों पर
जैसे आतुर हो
भूमि आलिंगन को
टीक के लम्बे लम्बे वृक्ष
घने दूर तक फैले
जंगल का भ्रम
पैदा कर रहे है
मेहनतकस किसान के
दल दले खेतो मे धंसे पांव
अपने जोड़े बैलों के संग
जैसे कह रहे हो
सपने अभी बाकी है
पुलिया से गुजरते हम
और ठीक नीचे
वेग से बहती नहर
जैसे उसे भी बहुत जल्दी हो
हम सब की तरह
कही कही ताल में
सफेद -गुलाबी पंकज भी
चटक रहा है धीरे धीरे
और उसके पत्तों पर
बिखरी है श्वेत सबनमी बुंदे
मोती बनकर
चेहरे को सहलाती
हौले हौले शीतल हवा
कुछ कहती है शायद
जी चाहता है
यही कहीं ठहर जाऊ
इन वादियों में
मगर जिंदगी जैसी
ट्रेन भी
थमने का नाम ही नही ले रही
बढती ही जा रही है
मंजिल तक पहुचने की
मरीचिका संजोए
अमित कु अम्बष्ट “आमिली “