स्वामी शंकराचार्य जी का चिन्तन और राष्ट्रीय दार्शनिक सम्मान
ओ३म्
परोपकारी मासिक पत्र के विद्वान सम्पादक डा. धर्मवीर जी ने पत्रिका के जुलाई, 2016 अंक में अपने सम्पादकीय में केन्द्रीय संस्कृति राज्य मन्त्री श्री महेश शर्मा के उस बयान पर अपने विचार प्रस्तुत किए हैं जिसमें उन्होंने कहा है कि सरकार संघ के विचारक श्री परमेश्वरन द्वारा स्थापित एन.जी.ओ. संस्था के स्वामी शंकराचार्य जी के आगामी जन्मदिवस पर उन्हें राष्ट्रीय दार्शनिक घोषित करने के प्रस्ताव पर विचार कर रही है। इस विषय में डा. धर्मवीर जी ने अनेक बातें कहीं है जिनमें से कुछ मुख्य बातों का उल्लेख हम इस लेख में कर रहे हैं। एक स्थान पर डा. धर्मवीर जी ने लिखा है कि ‘हिन्दुत्व इस देश का दुर्भाग्य रहा है। हिन्दुत्व के नाम पर जो पाखण्ड, अज्ञान, शोषण और कायरता इस देश में फैली है, वही इस देश में दासता का कारण है। क्या हिन्दुत्व के नाम पर उन्हीं सब बातों को महिमा-मण्डित करना उचित होगा?’ स्वामी शंकराचार्य जी की महत्ता का उल्लेख कर डा. धर्मवीर ने गुरुकुल ज्वालापुर के स्नातक, निरुक्त के हिन्दी भाष्यकार और इसी गुरुकुल के उपाध्याय पं. भगीरथ शास्त्री के विचारों का उल्लेख करते हुए लिखा है कि आचार्य जी ने कहा था कि ‘देखों ! यदि पाण्डित्य क्या होता है, यह जानना हो तो आचार्य शंकर को पढ़ना, भाषा क्या होती है, उस पर अधिकार कैसा होता है, यह जानना हो तो आचार्य पतंजलि का महाभाष्य पढ़ना और विषय की व्यापकता जाननी हो तो व्यास रचित महाभारत पढ़ना।’
एक बार आर्यजगत के मूर्धन्य विद्वान व उच्च वैज्ञानिक डा. स्वामी सत्यप्रकाश जी ने ऋषि उद्यान, अजमेर में डा. धर्मवीर जी से स्वामी शंकाराचार्य जी के अद्वैतवाद की चर्चा करते हुए बताया था कि ‘(आचार्य शंकराचार्य जी का वेदान्त दर्शन पर भाष्य उन) का वेदान्त सूत्रों के साथ बलात्कार है। जो बात सूत्र में है ही नहीं, आचार्य शंकर उन सूत्रों की व्याख्या में निकालते हैं। यह उनकी योग्यता या पाण्डित्य हो सकता है, औचित्य नहीं।’ 6 वैदिक दर्शनों के हिन्दी भाष्यकार आचार्य उदयवीर शास्त्री जी का उल्लेख कर विद्वान सम्पादक ने लिखा है कि ‘आचार्य शंकर का अद्वैत, वेदान्त दर्शन से वही सम्बन्ध रखता है, जैसे दुकान और मकान में ‘कान’ के होने का कोई निषेध नहीं कर सकता, परन्तु ‘कान’ का दुकान, मकान से कोई सम्बन्ध नहीं है।’
डा. धर्मवीर जी लिखते हैं कि आचार्य शंकर बड़े पण्डित और धर्म संस्थापक रहे हैं, परन्तु क्या उन्हें राष्ट्रीय दार्शनिक घोषित किया जाना उचित होगा? आचार्य शंकर की भांति अनेक आचार्यों ने वेदान्त पर अपनी-अपनी व्याख्या लिखी, शंकर की व्याख्या प्रचलित अधिक होगी, परन्तु सर्वमान्य नहीं रही है, अतः ऐसे में लोगों के बीच में उच्चता की स्थापना न्याय संगत नहीं है। आचार्य शंकर मौलिक दर्शनकार की योग्यता रखते हैं, परन्तु मौलिक दर्शनकार नहीं हैं। उन्होंने वेदान्त सूत्रों पर अपना भाष्य किया नहीं, थोपा है। यह मूल शास्त्र (वेदान्त दर्शन) और शास्त्रकार (व्यास जी) के साथ अन्याय है। जब भी सूत्रों और उपनिषदों की प्रसंगों की व्याख्या करनी होती है, आचार्य शंकर उन शब्दों, वाक्यों का सहज संगत अर्थ छोड़कर, इसका अभिप्राय यह है कहकर अपनी बात वहां स्थापित करते हैं। जैसे अर्थ तो निकल रहा है, यह जीवात्मा का स्वरूप है तो अर्थ कहते हुए बतायेंगे – अखण्ड अद्वैत ब्रह्म के अंश का कथन है। अर्थ तो निकला घोड़ा आ रहा है, आर्चाय शंकर कहेंगे – इसका अभिप्राय ऊंट आ रहा है।
आचार्य शंकर ब्राह्मण धर्म के संस्थापक थे। परन्तु ब्राह्मण धर्म की कुरीतियों का उन्होंने खण्डन नहीं किया, अपितु स्पष्ट रूप से उनका समर्थन किया है। उनका सिद्धान्त उस काल की प्रचलित परम्परा होने पर भी स्वीकार्य नहीं हो सकता। आचार्य शंकर कहते हैं – ‘द्वारं किमेकं नरकस्य नारी।’ नरक का एक मात्र द्वार नारी है। क्या इस कथन को आज स्वीकार किया जा सकता है? यदि पुरुष की दृष्टि में नारी नरक का द्वार है तो नारी की दृष्टि में पुरुष नरक का द्वार क्यों नहीं? राष्ट्रीय दार्शनिक की इस मान्यता की आज कोई स्वीकार कर सकता है?
डा. धर्मवीर जी आगे लिखते हैं कि इतना ही नहीं, आचार्य शंकर कितने भी महान् दार्शनिक हों, क्या सूत्रकार के स्थान पर भाष्यकार को श्रेष्ठता दी जा सकती है? राष्ट्रीय दार्शनिक ही बनाना है, तो सूत्रकारों की बड़ी लम्बी परम्परा है। यह दुर्भाग्य ही होगा कि वेदान्त के सूत्रकार महर्षि व्यास के स्थान पर वेदान्त सूत्रों की व्याख्या करने वाले को राष्ट्रीय दार्शनिक का स्थान दिया जा रहा है। इसे कौन न्याय संगत बतायेगा? यह हमारे पौराणिक भाइयों का स्वभाव बन गया है कि मूल शुद्ध स्वरूप को छोड़कर अशुद्ध स्वरूप को गौरवान्वित करने की उनकी परम्परा है। वेद दर्शन छोड़कर, वे पुराणों को वेद से ऊपर रखने का प्रयास करते हैं। इनके लिये सूत्रकार पाणिनि से महान् कौमुदीकार भट्टोजी दीक्षित है। वही स्थिति है वेदान्त के सूत्रकार से बड़ा इनकी दृष्टि में भाष्कार है।
डा. धर्मवीर जी द्वारा लिखी गई कुछ अन्य मुख्य बातों को लिख कर लेख को विराम देंगे। वह लिखते हैं कि आचार्य शंकर उस क्रूर और पाखण्डपूर्ण हिन्दुत्व के समर्थक हैं, जिसके अनुसार स्त्री–शूद्रों को वेद पढ़ने का अधिकार नहीं है। आचार्य शंकर ने अपने वेदान्त दर्शन के भाष्य में पहले अध्याय के तीसरे पाद में वेद पढ़ने के अधिकार के लिये इति ऐतिह्यं=ऐसा पारम्परिक कथन है, कहकर पंक्यिां लिखी हैं – जिह्वाच्छेद। यदि स्त्री और शूद्र वेद मन्त्र सुनें तो उनके कान में सीसा गर्म करके डाल देना चाहिए। यदि मन्त्र बोले तो जिह्वा छेदन कर देना चाहिए और वेद स्मरण करे तो शरीर भेद कर देना चाहिये। क्या पौराणिक लोग शंकर के इस कथन को राष्ट्रीय आदर्श घोषित कराना पसन्द करेंगे?
आचार्य धर्मवीर जी बताते हैं कि स्वामी ब्रह्ममुनि अपने वेदान्त दर्शन के भाष्य में प्रथम अध्याय के तृतीय पाद का 38वें सूत्र की व्याख्या में आचार्य शंकर के विषय में लिखते हैं कि ‘यहां शांकरभाष्य में वेद का श्रवण करते हुए शूद्र के कानों को गर्म सीसे, धातु और लाख से भरना, वेद का उच्चारण करते हुए का जिह्वाछेदन करना, वेद का स्मरण कर लेने पर शिर काट देने का प्रतिपादन और उसका स्वीकार शंकराचार्य के द्वारा करना महान् आश्चर्य और अनर्थ की बात है। साथ ही इसको स्वीकार करने से भी बड़ी बात यह कि ‘अहं ब्रह्मास्मि’ – मैं ब्रह्म हूं, जीव ब्रह्म की एकता के वाद का स्वीकार और प्रचार करने वाला व्यक्ति इस प्रकार के निर्दय कृत्य को उचित मानता है और सूत्रकार व्यास मुनि का सिद्धान्त है, ऐसा प्रतिपादन करके, सूत्रकार को भी कलंकित करता है। यह ऐसा शिष्टाचार शिष्ट ऋषि-मुनियों का आचार नहीं जो कि यहां शंकराचार्य ने दिखलाया। यह तो शिष्टविरुद्ध और वेदविरुद्ध है।
विद्वान सम्पादक धर्मवीर जी ने अपने लेख के अन्त में जो निष्कर्ष दिया है उसे लिख कर इस लेख को विराम देते हैं। उन्होंने लिखा है कि हिन्दुत्व का अभिप्राय अन्याय, पाखण्ड और अन्घ-परम्परा नहीं है। आपने इसी अन्धी चाल के चलते श्यामजी कृष्ण वर्मा जैसे क्रान्तिकारी की स्मृति में गुजरात में संग्रहालय तो बना दिया पर उसमें बड़े चित्र, काष्ठ मूर्तियां विवेकानन्द की लगा दीं, क्यों? कोई बता सकता है कि स्वामी विवेकानन्द और श्यामजी कृष्ण वर्मा के कार्य में कोई सामंजस्य है? स्वामी विवेकानंद ने अपने पूरे जीवन में राष्ट्र की स्वतन्त्रता के लिये कोई कार्य किया है? जीवन में कभी अंग्रेज सरकार का विरोध किया है? किसी क्रान्तिकारी के लिये सहानुभूति या समर्थन में दो शब्द कहे हैं, तो उन्हें अवश्य संग्रहालय दीर्घा में स्वर्णाक्षरों में लिखा जाना चाहिए, अन्यथा तो राष्ट्रीय दार्शनिक उपाधि भी आचार्य शंकर के स्थान पर स्वामी विवेकानन्द को ही दे दें, तो अच्छा होगा, फिर बिरयानी और अद्वैत के मेल से अच्छा वेदान्त बनेगा। यदि किसी गौरव को स्थापित करना है तो वेद शास्त्र की और प्राचीन ऋषियों, आचार्यों की सुदीर्घ परम्परा है, उनको स्मरण करने की आवश्यकता है। ऐसा करने से भारत का गौरव बढ़ेगा और नई युवा पीढ़ी को प्रेरणा मिलेगी। आप सत्ता के सहारे मूर्खता को स्थापित करेंगे तो जो परिणाम पहले हुआ, वही फिर होगा। इसी अज्ञान से देश दासता को प्राप्त हुआ था, फिर भी वैसा ही होगा।
हम समझते हैं कि आर्यसमाज की शिरोमणी सभा को केन्द्र सरकार के सम्बन्धित मंत्रलाय और प्रधानमंत्री जी को ज्ञापन देकर उपर्युक्त तथ्यों से अवगत कराना चाहिये।
–मनमोहन कुमार आर्य
मनमोहन भाई ,लेख समझ आया, इस के बारे में मैं कोई तिपनी नहीं करूँगा लेकिन इतना ही कहूँगा के जो धर्म स्त्री को और दलित को ऐसे शब्द बोलता है किः अगर वोह वेद सुने तो उस को भारी दंड दिया जाए वोह धर्म कभी नहीं हो सकता .
नमस्ते एवं धन्यवाद श्रद्धेय श्री गुरमेल सिंह भमरा जी। परन्तु यह भी तथ्य है कि उन्होंने धर्म की स्थापना का कार्य किया वह बहुत महान है। यह कार्य अन्य कोई नहीं कर सकता था। इससे स्वामी दयानन्द जी को भी कुछ न कुछ प्रेरणा अवश्य मिली थी और वह भी महान कार्य कर गए। सादर।