यदि ऋषि दयानन्द की परम्परा न होती तो हम कहीं पर न होते: आचार्य बालकृष्ण
ओ३म्
–आचार्य रामनाथ वेदालंकार जयन्ती महोत्सव सोल्लास सम्पन्न’
पतंजलि योगपीठ के सुप्रसिद्ध यशस्वी आचार्य बालकृष्ण जी ने कहा कि किसी गौरवशाली गुरु का शिष्य और अनुगामी होने पर गर्व की अनुभूति हुआ करती है। आचार्य रामनाथ वेदालंकार जी को उन्होंने वेद और वैदिक साहित्य का प्रकाण्ड विद्वान बताया। आचार्य बालकृष्ण 7 जुलाई, 2016 को ज्वालापुर स्थित आर्य वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम के सभाकार में वेदमूर्ति आचार्य रामनाथ वेदालंकार जी की 102 वीं जयन्ती के अवसर पर श्रोताओं को सम्बोधित कर रहे थे। आचार्य बालकृष्ण जी ने स्वयं व श्रोताओं को इस आयोजन में उपस्थित होने के लिए सौभाग्यशाली बताया और कहा कि उन्होंने आचार्य जी के ज्ञान से स्वयं को आलोकित करने के लिए उनकी पुस्तक “वैदिक वीर गर्जना” को बड़ी संख्या में प्रकाशित कर वितरित किया जिससे बच्चों पर अच्छे संस्कार पड़ सकें। आचार्य बालकृष्ण जी ने गर्व से कहा कि यदि ऋषि दयानन्द की परम्परा न होती तो हम कहीं पर न होते। उन्होंने आगे कहा कि यदि ऋषि दयानन्द और स्वामी श्रद्धानन्द न होते तो न गुरुकुल कांगड़ी होता और न ही आर्य वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम होता। हमारे जीवन का कल्याण वेदों का अध्ययन करने और वैदिक जीवन जीने से हुआ है व होता है। गुरुकुल में गाई जाने वाली पंक्तियों का भी उन्होंने उल्लेख किया जिसमें कहा जाता था कि ‘आयेंगे अरब से खत जिसमें यह लिखा होगा कि गुरुकुल का ब्रह्मचारी वहां हलचल मचा रहा है।’ आचार्यजी ने बताया कि स्वामी रामदेव जी के दुबई में योग शिविर के अवसर पर ओ३म् का उच्चारण व वेद मन्त्र बोलने से निषिद्ध किया था। उन्हें निर्देश दिए गये थे कि केवल योग के आसन ही सिखाने हैं। स्वामी जी ओ३म् का उच्चारण किए बिना रह नहीं सके और उन्होंने वहां ओ३म् भी बोला और वेदमन्त्र भी बोले। उन्होंने बताया कि इस वर्ष स्वामी रामदेव जी के योग शिविर में हजारों मुस्लिम बन्धु सम्मिलित हुए। आचार्य बालकृष्ण जी ने गुरुकुल चोटीपुरा के सहयोग की चर्चा करते हुए बताया कि इस गुरुकुल की ब्रह्मचारिणियों के सहयोग से उन्होंने प्राचीन पाण्डुलिपियों पर कार्य कराया है जिसके परिणामस्वरुप 13 पुस्तकों का प्रकाशन किया जा चुका है और 10 अन्य पुस्तकों का प्रकाशन हो रहा है। उन्होंने कहा कि गुरुकुल चोटीपुरां के सहयोग से यह महनीय कार्य पतंजलि योगपीठ ने किया है जिसके लिए मैं उनका धन्यवाद करता हूं। उन्होंने कहा कि हमें इस कार्य को अखण्ड परम्परा का रूप देना है। अपने वक्तव्य को विराम देते हुए उन्होंने कहा कि आचार्य रामनाथ जी का साहित्य घर-घर पहुंचना चाहिये। उन्होंने आचार्य रामनाथ वेदालंकार जी के साहित्य के प्रकाशनार्थ पांच लाख रुपये की धनराशि दान देने की घोषणा की।
वेदमूर्ति आचार्य डा. रामनाथ वेदालंकार जी का 102 वां जयन्ती समारोह 7 जुलाई, 2016 को आर्य वानप्रस्थ एवं संन्यास आश्रम, ज्वालापुर के सभागार में उनके शिष्यों व परिवार के सदस्यों सहित आर्य विद्वानों की उपस्थिति में श्रद्धापूर्ण वातावरण में सोल्लास सम्पन्न हुआ। मंच पर उत्तराखण्ड संस्कृति विश्व विद्यालय के कुलपति श्री पीयूषकान्त दीक्षित (जन्मोत्सव के अध्यक्ष), मुख्य अतिथि आचार्य बालकृष्ण, पतंजलि योगपीठ, हरिद्वार सहित डा. वेदप्रकाश शास्त्री, डा. जयदेव वेदालंकार, डा. हरिगोपाल शास्त्री, गुरुकुल महाविद्यालय, ज्वालापुर, श्री रामकृष्ण शास्त्री, प्रधान आर्य वानप्रस्थ एवं संन्यास आश्रम एवं हरिद्वार के विधायक स्वामी यतीश्वरानन्द जी उपस्थित थे। कार्यक्रम लगभग 3:00 बजे आरम्भ होकर 6:00 बजे तक चला। कार्यक्रम का आरम्भ आर्य विद्वान और आचार्य रामनाथ वेदालंकार जी के सुपुत्र डा. विनोदचन्द्र विद्यालंकार की आयोजन विषयक भूमिका से आरम्भ हुआ। कार्यक्रम के आरम्भ में श्री घूड़मल प्रह्लादकुमार धर्मार्थ न्यास, हिण्डोन सिटी द्वारा प्रकाशित तीन महत्वपूर्ण ग्रन्थों उपनिषद् रहस्य (अध्यात्म विद्या), भाष्यकार वा अनुवादक महात्मा नारायण स्वामी व पं. भीमसेन शर्मा, पृष्ठ संख्या 1208 एवं मूल्य रुपये 320.00, दूसरा ग्रन्थ अथर्ववेदीय चिकित्सा शास्त्र, लेखक स्वामी ब्रह्मुनि जी मूल्य रुपये 250/- एवं तृतीय ग्रन्थ यजुर्वेद सूक्ति रत्नाकर, संकलनकर्ता डा. विनेाद चन्द्र विद्यालंकार मूल्य रू. 60/- का विमोचन एवं लोकार्पण किया गया। इसके बाद आचार्य रामनाथ वेदालंकार जी के भक्त श्री प्रभाकरदेव आर्य जी ने सभा को सम्बोधित किया और कहा कि गीता प्रेस गोरखपुर के साहित्य से हमारा कोई मुकाबला नहीं है। उन्होंने कहा कि गीता प्रेम, गोरखपुर का एक वर्ष का बजट 60 करोड़ रुपये है। उन्होंने कहा कि धनाभाव के कारण हम उनसे स्पर्धा नहीं कर सकते। आर्यसमाज में उच्च कोटि का साहित्य निर्मित करने वाले विद्वानों को उचित सम्मान और संरक्षण नहीं मिला, इसकी उन्होंने दुःखी हृदय से चर्चा की। गीता प्रेस विषयक अपना एक संस्मरण सुनाते हुए उन्होंने कहा कि एक बार उनकी उपस्थिति में चार-पांच युवक वहां एक पुस्तक लेकर आये और बोले की इसकी पांच हजार प्रतियां प्रकाशित की जानी हैं। यह हमारे गुरु जी का आदेश है। श्री प्रभाकरदेव जी ने बताया कि इस घटना को देखकर उन्हें आश्चर्य हुआ कि एक साधारण सी पुस्तक की पांच हजार प्रतियां प्रकाशित हो रही हैं जबकि उन्होंने कभी किसी ग्रन्थ की इतनी प्रतियां प्रकाशित नहीं की। इससे उन्होंने लज्जा का अनुभव किया। उन्होंने श्रोताओं से कहा कि यदि आपको हमारा कार्य अच्छा लगता है तो आप हमें आर्थिक दृष्टि से सहयोग करें। उन्होंने बताया कि एक बार आर्य वानप्रस्थ एवं संन्यास आश्रम में मुझे श्री सदानन्द एवं उनकी धर्मपत्नी श्रीमती सुमन ने बुलाकर ग्रन्थ प्रकाशनार्थ एक लाख रुपये की धनराशि दानस्वरुप भेंट की। श्री प्रभाकरदेव आर्य जी ने कहा कि हमारे पास योजनायें तो बहुत हैं परन्तु धनाभाव के कारण बहुत से क्षेत्रों में कार्य नहीं कर पा रहे हैं। उन्होंने सभा को यह भी बताया कि आरण्यक व अन्य दुर्लभ ग्रन्थों के सम्पादन का कार्य उन्होंने विद्वानों के सहयोग से आरम्भ कराया है जिसके सुपरिणाम कुछ समय बाद आर्य जनता के सम्मुख आयेंगे। अपने सम्बोधन को विराम देते हुए श्री आर्य ने कहा कि यदि आप स्वयं आर्थिक सहयोग नहीं कर सकते तो अन्य लोगों से करायें। श्री प्रभाकरदेव जी के सम्बोधन का प्रभाव यह हुआ कि श्री गिरधारी लाल चन्दवानी जी ने अपने न्यास की ओर से उन्हें एक लाख रुपये दान देने की घोषणा की। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि आचार्य बालकृष्ण, योगपीठ ने भी 5 लाख रुपये दान देने की घोषणा की।
इस सम्बोधन के बाद आचार्य रामनाथ वेदालंकार जी के परिवारजनों की ओर से 5 विद्वानों का सम्मान किया गया। इस श्रृंखला के प्रथम विद्वान श्री रामप्रताप वेदालंकार थे जो आचार्य रामनाथ जी के सन् 1955 से पूर्व शिष्य रहे और जिन्होंने उच्च पदों पर रहकर कार्य किया। दूसरा सम्मान गुरुकुल नजीबाबाद की आचार्या डा. प्रियम्वदा वेदशास्त्री जी का हुआ। तीसरा सम्मान आचार्य जी के शिष्य रहे डा. राजेन्द्र कुमार आयुर्वेदालंकार जी का हुआ। इसके बाद आचार्य जी के शिष्य रहे डा. आनन्द कुमार आर्य, आईपीएस का सम्मान हुआ। श्री तपेन्द्र कुमार, पूर्व आईएएस का नाम भी सम्मानित किये जाने वाले विशिष्ट व्यक्तियों में था परन्तु वह किसी कारण आयोजन में पहुंच न सके। अब यह सम्मान उन्हें अपनी सुविधाअनुसार हरिद्वार आने पर आर्य वानप्रस्थ आश्रम में वहां कि यज्ञशाला में उपस्थित याज्ञिकों के सम्मुख प्रदान किया जायेगा। सभी सम्मानित विद्वानों को अभिनन्दन वा प्रशस्ति पत्र सहित माल्यार्पण एवं शाल भेंट कर सम्मानित किया गया। सम्मान समारोह की कार्यवाही पूर्ण होने के बाद सभी सम्मानित अतिथियों वा विद्वानों ने धन्यवाद स्वरुप श्रोताओं को सम्बोधित किया।
श्री रामप्रताप वेदालंकार ने अपने सम्बोधन में बताया कि आचार्यजी से यह प्रश्न करने पर कि आपने कोई अच्छी नौकरी की प्राप्ति के लिए प्रयत्न क्यों नहीं किये तो उन्होंने उत्तर दिया कि यदि मैं कोई अन्य कार्य करता तो मेरा जीवन व्यर्थ हो जाता। अन्यत्र नौकरी करने पर मैं पदोन्नतियों और धन के संग्रह में ही लगा रहता। उन्होंने कहा था कि स्वामी श्रद्धानन्द जी ने मुझे निर्देश दिया था कि मैं गुरुकुल की सेवा करुं। श्री रामप्रताप जी ने कहा कि इस कारण आचार्य रामनाथ वेदालंकार जी ने गुरुकुल की सेवा की और उच्च वेतन की परवाह नहीं की। आचार्या प्रियम्वदा वेदशास्त्री ने कहा कि कुछ लोग जीवन के एक एक क्षण का सदुपयोग करके अपने जीवन को सफल बनाते हैं। डा. रामनाथ वेदालंकार जी ऐसे ही व्यक्तित्व के धनी थे। आचार्य जी ने स्वयं विद्या मधु का पान किया और दूसरों को भी कराया। आचार्य रामनाथ वेदालंकार जी प्रामाणिक आचार्य थे। उन्होंने कहा कि शिष्य उनके अध्यापन से उसी प्रकार से तृप्त हो जाते थे जैसे कि कोई जिज्ञासु किसी पुस्तकालय में जाकर इच्छित विषय की पुस्तकों को प्राप्त कर उनके समाधान पाकर तृप्त हो जाता है। विदुषी वक्ता ने यह भी बताया कि आचार्य रामनाथ जी उनके शोध कार्य के निरीक्षक थे।
इसके पश्चात कार्यक्रम में सम्मानित डा. राजेन्द्र कुमार आयुर्वेदालंकार जी ने भी आयोजनकर्ताओं का धन्यवाद किया और आचार्य रामनाथ जी को अपनी श्रद्धांजलि दी। आचार्य रामनाथ वेदालंकार जी के शिष्य डा. आनन्द कुमार आर्य, आईपीएस ने कहा कि आचार्य जी तपस्वी थे और उनके जीवन के अनेक पहलु थे। आचार्य जी विद्या के प्रकाश से आलोकित, उच्च कोटि के विद्वान और आदर्श अध्यापक होने के साथ इन सभी गुणों में पारंगत थे। आचार्य जी की लेखन शैली अद्भुत थी। उनकी मुख्य बात यह थी कि वह वैदिक साहित्य के सच्चे पारखी थे। आचार्य जी कठिन से कठिन विषय को सरल बनाकर अपने शिष्य को हृदयंगम कराते थे। उन्होंने कहा कि आचार्य रामनाथ वेदालंकार जी को अपने पूर्ववर्ती सभी वेदभाष्यकारों में रखा जा सकता है। आचार्य जी के गुण बताते हुए श्री आनन्द कुमार ने कहा कि आचार्य जी अपने शिष्यों की सहायता भी करते थे। उन्होंने कहा कि आचार्य जी को तपस्यारत रहते देखकर हम अनुमान कर सकते है कि हमारे पूर्ववर्ती पूर्वज किस प्रकार तपस्या का जीवन व्यतीत करते होंगे। श्री आनन्द कुमार ने आचार्य जी से प्रेरणा लेने का आग्रह किया और कहा कि आचार्य जी ने हमें वैदिक पथ पर चलना सिखाया है। समाज की स्थिति की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि आर्यसमाज का वर्तमान महौल निराशा का है। आर्यसमाजी नेताओं में आपस में मनोमालिन्य है और उनके अनुयायी आपस में बटें हुए हैं। उन्होंने कहा यह सब कुछ होने पर भी हमारे बहुत से कार्यकर्ता तपस्वी, त्यागी व कर्मठ हैं जो बिना किसी अपेक्षा के अपने-अपने कामों में लगे हुए हैं। उन्होंने आपस में समन्वय स्थापित करने का अनुरोध किया। अपने सम्बोधन को विराम देते हुए उन्होंने कहा कि आईये ! एक योजना बनाकर समन्वय व संगठन के साथ आगे बढ़े। ऐसा करने से हममें उत्साह आयेगा। हम आगे बढ़ेंगे तथा हमें कोई रोक नहीं पायेगा।
अपने शोध कार्य में आचार्य रामनाथ वेदालंकार जी की शिष्या रही और गुरुकुल चोटीपुरा की आचार्या सुकामा जी ने अपने सम्बोधन में कहा कि हम वेद परम्परा के ऋषि श्रेणी के भाष्यकार पं. रामनाथ जी वेदालंकार की 102 वीं जयन्ती मना रहे हैं। शोध कार्य के समय हमारा उनसे परिचय हुआ। उनसे हमें वेदों को समझने की दृष्टि मिली। उनके आचार्यत्व में हमारी शोध की चाह पूर्ण हुई। उन्होंने बताया कि आचार्य रामनाथ वेदालंकार जी बहुत गम्भीरता के साथ वेद के रत्नों को उद्घाटित किया करते थे। हमने देखा कि वह अध्ययन अध्यापन और अपने निजी कार्यों में बहुत तप किया करते थे। वह उन दिनों सामवेद का भाष्य कर रहे थे। जब थक जाते थे तो खड़े होकर अपने बिस्तर पर स्टूल रखकर खड़़े होकर लेखन का कार्य करते थे। वह प्रतिदिन प्रातः 3 बजे ही उठ जाते थे। आचार्य जी वेद मंजरी नामक प्रसिद्ध ग्रन्थ की रचना की है। वह कहा करते थे कि अब इसका एक संशोधित व सवंर्धित संस्करण प्रकाशित करना चाहिये और बताते थे कि अब मैं इससे अधिक अच्छा इसे लिख सकता हूं। अपने ही किसी पुराने और महत्वपूर्ण लेख को देखकर वह कभी-कभी कहा करते थे कि क्या यह लेख मैंने ही लिखा था? वेदभाष्य सहित अपने सभी कार्यों को करते हुए वह सन्ध्या व यज्ञ में भी नियमित रूप से सम्मिलित होते थे। आचार्य जी वेद मन्दिर में सप्ताह में एक दिन उपदेश भी किया करते थे। बहिन आचार्या सुकामा जी ने बताया कि आचार्य जी वेद सप्ताह को वेद मन्दिर में ब्रह्मचारियों के साथ मनाकर सन्तुष्ट होते थे। आचार्या सुकामा जी ने कहा कि आचार्य जी ने उन्हें व्याकरण पर शोध कार्य न कर वेद पर शोध कार्य करने की प्रेरणा की थी जिसे उन्होंने स्वीकार किया था। आचार्य जी ने हमें महर्षि दयानन्द जी के वेदभाष्य पर शोध कार्य करने की दृष्टि दी। हम अनुभव करते है कि उनकी प्रेरणा से हमने अच्छा कार्य किया है। आचार्य सुकामा जी ने बताया कि वह अध्ययनार्थ डेढ़ वर्ष तक आचार्य जी के साथ वेद मन्दिर आश्रम में रहीं और यह कह कर अपने सम्बोधन को विराम दिया।
कार्यक्रम का संचालन कर रहे डा. विनोदचन्द्र विद्यालंकार जी ने कहा कि पिता आचार्य रामनाथ वेदालंकार जी ने अपना जीवन स्वामी श्रद्धानन्द जी की प्रेरणा के अनुसार गुरुकुल को दिया। वह गुरुकुल कागड़ी को स्वामी श्रद्धानन्द जी के स्वप्नों का गुरुकुल देखना चाहते थे। आचार्य रामनाथ जी ने अपने समय में गुरुकुल कांगड़ी में स्वामी श्रद्धानन्द जी के स्वप्नों के विपरीत कोई काम नहीं होने दिया। डा. विनोदचन्द्र विद्यालंकार जी ने कहा कि उन्होंने पिताजी को सुझाव दिया था कि यदि वह अपने विचारों को लेखबद्ध कर जायेंगे तो अमर हो जायेंगे। अन्य कार्यों से उन्हें ऐसा यश प्राप्त नहीं हो सकता। मेरा यह प्रस्ताव सुनकर वह हंसे और बाद में उन्होंने इस पर विचार किया। उन्होंने स्वयं को पीएचडी के लिए पंजीकृत कराया और सन् 1965 में उसे पूरा कर सफलता प्राप्त की। सन् 1946-47 में उनकी पहली पुस्तक ‘वैदिक वीर गर्जना’ प्रकाशित हुई। उन दिनों पौराणिक पत्रिका ‘‘कल्याण–मासिक” के सम्पादक श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार थे। उन्होंने कल्याण में इस पुस्तक की समीक्षा प्रकाशित की। इससे यह पुस्तक प्रकाशन के बाद हाथो हाथ बिक गई। डा. विनोद जी ने बताया कि आचार्य जी की पुस्तक ‘‘वैदिक नारी” के प्रकाशन के बाद आचार्य जी ने लेखन कार्य को गति प्रदान की। उन्होंने बताया कि श्री प्रभाकरदेव आर्य जी से भेंट होने पर उन्होंने कहा था कि मैं आपको दो हजार पृष्ठों की सामग्री देने से पूर्व मरुंगा नहीं, इसे उन्होंने सत्य सिद्ध किया। डा. विनोद कुमार जी ने कहा कि किसी व्यक्ति को अमर रखना है तो उसके साहित्य का प्रकाशन होना चाहिये। आचार्य रामनाथ जी के प्रभाव का उल्लेख कर उन्होंने बताया कि उनकी मृत्यु के बाद अमेरिका व लन्दन आदि अनेक देशों में शोक सभायें आयोजित की गईं थीं। डा. विनोदचन्द्र विद्यालंकार जी ने कहा कि आचार्य बालकृष्ण जी बहुत ऊंचा कार्य कर रहे हैं। उनकी प्रशंसा करते हुए उन्होंने कहा कि वह मुक्त हस्त से दान देते हैं। अपने विषय में उन्होंने कहा कि विद्यार्थी जीवन से लेकर अन्तिम समय तक मेरे पिता ने कभी मेरी सिफारिश नहीं की। उन्होंने बताया कि पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति मेरे पिता के अन्तरंग रहे थे। सेवा निवृत होने के बाद उन्होंने मुझे कहा कि आप मेरे कार्यकाल में कभी मुझसे मिले नहीं तो मैंने उन्हें उत्तर दिया था कि मेरा कोई स्वार्थ नहीं था। डा. विनोदचन्द्र जी ने कहा कि उन्होंने अपने पुत्र को भी सत्यमार्ग पर चलने और किसी के आगे हाथ न पसारने की शिक्षा दी है। उन्होंने अपील की कि गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय को स्वामी श्रद्धानन्द जी के स्वप्नों व आदर्शों का गुरुकुल बनायें। उन्होंने कहा कि मुझे जो कुछ फल मिल रहा है वह गुरुकुल का पुत्र होने के कारण से मिल रहा है। सड़को के नाम महापुरुषों के नाम पर रखकर तथा उनके नाम पर भवन व स्मारक बना कर किसी को सच्ची श्रद्धांजलि नहीं हुआ करती अपितु श्रद्धांजलि ठोस काम करने से होती है। उन्होंने साहित्य सृजन की सभी विद्वान श्रोताओं को प्रेरणा की। अपने वक्तव्य को विराम देते हुए उन्होंने आचार्य बालकृष्ण जी को कहा कि आर्यसंस्थाओं को बढ़ाने की ओर भी आपको ध्यान देना है। श्री विनोदचन्द्र जी के बाद आर्य वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम के प्रधान श्री रामकृष्ण शास्त्री ने कहा कि आचार्य रामनाथ जी ने अपनी सुगन्धि से आर्यजगत के सारे वातावरण को सुवासित किया।
श्री चैम्पियन नाम से विख्यात जिला हरिद्वार के एक पूर्व विधायक ने भी श्रद्धजंलि सभा को सम्बोधित किया और आचार्य रामनाथ वेदालंकार जी की स्मृति को स्थाई बनाने में अपने सहयोग का आश्वासन दिया। डा. वेद प्रकाश शास्त्री ने अपने सम्बोधन में कहा कि आचार्य रामनाथ वेदालंकार मेरे आचार्यप्रवर थे। मैं अपने इन गुरु जी को वेद मानता हूं। आचार्य जी चतुर्वेद थे। उन्होने अपने ग्रन्थों द्वारा चारों वेदों के ज्ञान का प्रकाश किया है। मैं आज ऋषिवर आचार्य रामनाथ जी को उनकी जयन्ती के अवसर पर नमन करता हूं। राष्ट्रीय संस्कृत विद्वान के रुप में राष्ट्रपति सम्मान प्राप्त डा. जयदेव वेदालंकार ने कहा कि वह सन् 1965 में आचार्य रामनाथ वेदालंकार जी के शिष्य बने थे। उन्होंने कहा कि आचार्यजी के अन्तिम समय में जितना उनके निकट वह रहे उतना आचार्य वेदप्रकाश शास्त्री जी नहीं रहे। उन्हें बताया कि आचार्य जी 98 वर्ष की अवस्था होने पर भी मार्ग में लड़खड़ाते हुए डेरी से दूघ लेने जाते थे। मेरी पत्नी ने उन्हें देखा तो मुझे उनका शिष्य होकर उनकी सेवा न करने का उलाहना दिया। मैंने आचार्य जी को कहा कि मैं आपका दूध ला दिया करुगां। आचार्य जी स्वयं अपना भोजन तैयार करते थे। मैंने उन्हें कहा कि भोजन की व्यवस्था भी मैं कर देता हूं। आचार्य जी ने मेरे इन प्रस्तावों को टाल दिया। आचार्य जी अपने वस्त्र स्वयं धोते थे। मैंने कहा कि मेरे पास आटोमैटिक धुलाई मशीन है जिसमें आपके कपड़े धुल जाया करेंगे और मैं प्रैस भी कर दिया करुगां। आचार्य जी ने एक बार तो मुझ कपड़े धोने का अवसर दिया परन्तु अगली बार मैंने उन्हें स्वयं अपने वस्त्र धोते देखा। मैंने देखा कि उन्होंने सब्जी काटकर तैयार कर रखी थी। आचार्य जी से बात करने पर वह बोले कि अपना हमें अपना काम खुद करना चाहिये। उन्होंने बताया कि हरिद्वार के आयुर्वेदिक चिकित्सक डा. के. के. शर्मा ने एक बार मुझे कहा था कि आपके आचार्य डा. रामनाथ वेदालंकार भगवान हैं और उनके दर्शन करना भगवान के दर्शन करना ही है। डा. जयदेव वेदालंकार जी के सम्बोधन पर टिप्पणी करते हुए डा. विनोदचन्द्र विद्यालंकार ने कहा कि पिताजी जीवन भर आत्मनिर्भर और स्वावलम्बी रहे। वह हमसे भी अपना काई काम नहीं कराते थे। वह कहते थे कि जहां तक हो सके मनुष्य को स्वावलम्बी होना चाहिये। उन्होंने बताया कि वह जब कभी हमसे अपनी दवा मंगाते थे तो मुझे, मेरी बहन व धेवती को दवाई के पैसे साथ ही दे दिया करते थे। उनकी मृत्यु के बाद हमने कुछ दुकानदारों से पता किया कि किसी का उन पर कोई पैसा तो बकाया नहीं है? इस पर सभी दुकानदारों ने हाथ जोड़ दिये और कहा कि वह कभी इसका मौका ही नहीं देते थे।
अपने सम्बोधन में गुरुकुल महाविद्यालय, ज्वालापुर के डा. हरि गोपाल शास्त्री ने कहा कि उनका बहुत समय से आचार्य रामनाथ वेदालंकार जी से सम्पर्क था। उन्होंने मेरी पीएचडी का विषय निर्धारित किया था। उनका स्वभाव का वर्णन करते हुए उन्होंने एक संस्कृत का श्लोक पढ़ा और कहा कि ऐसे व्यक्ति वन्दनीय होते हैं। उन्होंने कहा आचार्य जी मेधावी थे और वह आज भी अपने सैकड़ों शिष्यों के हृदय पटल पर विराजमान हैं। आचार्य जी को वेदों में अपार रुचि थी। उन्होंने आचार्य जी के जीवन की पूरी यात्रा को भी संक्षेप में प्रस्तुत किया और कहा कि आचार्य जी 18 वर्षों तक गुरुकुल कांगड़ी में वेद विभाग में रहे थे। इस क्रम में विनोद जी ने कहा कि आचार्य जी ने ओ३म् शान्तिः शान्तिः शान्तिः, हे प्रभु, सब सुखी हों, सुखी हों, सुखी हों, कहकर अपने प्राणों का उत्सर्ग किया। अपने सम्बोधन में गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय के कुलपति डा. सुरेन्द्र कुमार ने कहा कि आचार्य रामनाथ वेदालंकार अपनी शिष्य परम्परा के द्वारा देश विदेश में रोशन थे। वह वैदिक विद्या के प्रामाणिक विद्वान थे। वह आधुनिक व प्राचीन शैली का समन्वय थे। पाठक उनका साहित्य रुचिपूर्वक पढ़ते हैं। आचार्य जी स्वभाव में विनम्र थे। ऐसी विनम्रता विद्वानों में बहुत कम मिलती है। एक पिता की तरह वह हमारी चिन्ता भी करते थे। अपने वक्तव्य को विराम देते हुए उन्होंने कहा कि वह आचार्य जी का हार्दिक स्मरण और उनको नमन करते हैं। आयोजन की समाप्ती पर उत्तराखण्ड संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति डा. पीयूषकान्त दीक्षित का अध्यक्षीय भाषण हुआ। वह अधिकांश धारा प्रवाह संस्कृत में बोले। उन्होंने कहा कि तीन चीजों पुत्र, उसके यश व पानी से मनुष्य के भाग्य का परीक्षण होता है। इसकी उन्होंने व्याख्या भी की। हरिद्वार से जुड़े अपने विद्यार्थी जीवन के कुछ संस्मरणों को भी उन्होंने प्रस्तुत किया। उनके सम्बोधन के साथ ही आचार्य रामनाथ वेदालंकार जी का 102 वां जन्मोत्सव सोल्लास सफलता पूर्वक सम्पन्न हुआ। जयन्ती के अवसर पर प्रातः काल यज्ञ व प्रवचनों का कार्यक्रम भी सम्पन्न किया गया था। पूरा आयोजन श्रद्धापूर्ण वातावरण में सम्पन्न हुआ जिसमें बड़ी संख्या में आचार्य जी की शिष्य मण्डली के लोग सम्मिलित हुए।
–मनमोहन कुमार आर्य