वृक्ष को देखा मैने
उसने अपने ऊपर बना रखी हो
जैसे पक्षियों की होटल
गर्मी में आसरा तलाशते राहगीर
कभी खुद को तो कभी अपने वाहनों को
धूप से बचाने की चिंता में
जैसे हो रहे हो दुबले
तपिश झेलता वृक्ष
अब हो चूका है बूढ़ा
लेकिन बूढ़ा होना
हरेक का कर्तव्य हो जैसे
बांधी जाती मान -मन्नते
लगाए जाते है लम्बी उम्र
होने के प्रार्थना के फेरे
वृक्ष से ही आसपास होने के
लोग आज भी बताते पते
वृक्ष कुछ न कुछ हम सब को
देता ही आया है ,पर
माँगा न उसने हमसे कभी
अंतिम पड़ाव का साथी बनकर
जो खुद साथ जलकर साथ निभाता
वृक्षों को बचाना और लगाना होगा
यदि नहीं बचाया तो
प्राणवायु भी बाजारों में बिकने लगेगी
जो कि बूढ़ा वृक्ष आज भी मुफ़्त में बाँट रहा
जिंदगी की सुखद छांव और सुकून की गिफ़्ट
संजय वर्मा “दृष्टी “
प्रिय संजय भाई जी, अति सुंदर कविता के लिए आभार.
बहुत खूब !