कविता : भार संपोलो का
नित नित भार संपोलो का जो सहती है
विचलित सी भारत माता अब कहती है
बहुत हुआ पर और सहन नहीं होता
गद्दारो का भार वहन नहीं होता
गर घाटी उबारना चाहे सदमो से
चलना होगा इसराइल के कदमो पे
इन पत्थर बाजो का काम तमाम करो
इनका घाटी में जीना हराम करो
हर पत्थर के बदले में इक गोली हो
छलनी कर दो जहाँ भी इनकी टोली हो
बाढ़ में ये गर मरते है तो मरने दो
सेना जो भी करती है वो करने दो
पाक पताका इनको न लहराने दो
सीमा पार जो जाते है तो जाने दो
सीमा पर फिर कह दो वीर जवानों से
सीधे गोली मारे इन हैवानो पे
दो दिन में अपनी हो जायेगी घाटी
और कमीनो के लोहू से रंग दो माटी
मिल जाने दो ख़ू माटी में गैरो का
बहने दो दरिया शोणित की बहती है
मनोज”मोजू”
बहुत शानदार !