ग़ज़ल : वो रोती रही मैं आंख मलता रहा
वो रोती रही मैं आंख मलता रहा
वो सिसकती रही मैं चलता रहा।
हाथ रोके न उसने सब कुछ सहा
पर अधरों से उसने न कुछ कहा।
आँख उसकी, हथेली मेरी नम हुई
मैं कटा वृक्ष सा, जब उस पर ढहा।
फिर लिपटी वो ऐसी, मेरी बाजुए
गिला अपनी बताते हुए जब कहा।
हाल उसका वही हाल मेरा वही
आँख मेरी खुली तो जुदा थे जहाँ।
— कवि दीपक गांधी
स्वप्निल ग़ज़ल !