हमारा विनाशक हमारे प्रतिघात से दूर जा गिरे
ओ३म्
देश में मुख्यतः जम्मू एवं कश्मीर राज्य में आजकल अशान्ति है। देश रक्षक हमारे सैनिक बिना किसी कारण मारे जा रहे हैं और देश विरोधी व आतंक के काम करने वालों का कुछ लोग नाना प्रकार के तर्कों से समर्थन व प्रदर्शन भी कर रहे हैं। ऐसे लोगों को वहां पाकिस्तान के झण्डे और पाकिस्तान जिन्दाबाद और हिन्दुस्तान व भारत मुर्दाबाद के नारे भी दिखाई नहीं देते या ये लोग किन्हीं अज्ञात कारणों से उनकी अनदेखी करते हैं। ऐसे वातावरण में देश हित और वैदिक धर्म के भविष्य को सोचकर चिन्ता होना स्वाभाविक है। हम अनुमान करते हैं कि आर्यसमाज के प्रायः सभी विद्वान इन हालातों एवं वातावरण से संतप्त होंगे। इसका समाधान भी सभी जानते हैं। परन्तु आजकल की राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति सहित देश की वोट बैंक नीति ने सरकार व सैनिकों के हाथों को बांध रखा है। इसी का लाभ आतंकवादी और उनके हिमायती उठाते हैं। इसके परिणाम देश के लिए हानिकर व विनाशकारी ही होने हैं। सिद्धान्त है कि हमारा वर्तमान हमारे अतीत के कर्मों का परिणाम है और हमारा भविष्य हमारे वर्तमान के कर्मों का ही परिणाम होगा। आज देश में जो घट रहा है इससे ही देश का भविष्य बनना है। अतः सरकार को देश के वर्तमान व भविष्य के हितों को ध्यान में रखकर सम्यक् निर्णय लेने होंगे अन्यथा भविष्य वर्तमान से भी खराब हो सकता है। इसी प्रकार का चिन्तन करते हुए आज हम ऋग्वेद के 1.79.11 का डा. आचार्य रामनाथ वेदालंकार जी कृत भाष्य वा व्याख्या उनकी पुस्तक ‘ऋग्वेद ज्योति’ से साभार प्रस्तुत कर रहे हैं। इस मन्त्र में आततायियों के प्रति कर्तव्य का विधान स्वयं ईश्वर ने किया हुआ है जिस पर गम्भीरता से सभी देशप्रेमी बन्धुओं को विचार करना चाहिये।
ऋग्वेद का मन्त्र हैः – ‘यो नो अग्नेऽभिदासत्यन्ति दूरे पदीष्ट सः। अस्माकमिद् वृधे भव।।’ यह भी जान लें कि इस मन्त्र का देवता अग्नि है, ऋषि गोतम राहूगण और छन्द गायत्री है। मन्त्र का पदार्थ है- (यः) जो (नः) हमें (अग्ने) हे अग्रनेता प्रभु! तथा हे मेरे आत्मन् (अन्ति) हमारे समीप आकर (अभिदासति) विनष्ट करता है, (दूरे परीष्ट सः) वह दूर जा गिरे। तुम (अस्माकम्) हमारी (इत्) निश्चय ही (वृधे) वृद्धि एवं उन्नति के लिए (भवः) होवो।
मन्त्र की व्याख्या करते हुए आचार्य रामनाथ वेदालंकार जी लिखते हैं कि हमारी विनाश–लीला का भी कुछ हिसाब–किताब नहीं है। न जाने कौन–कौन हमें विनष्ट करने में हिस्सा लेते हैं। वे हमारे साथ समीपता स्थापित करते हैं और प्रहार कर बैठते हैं। शत्रु तो विनाशक होते ही हैं, बहुत बार मित्र भी विनाश की ओर ले जाते हैं। वह मित्र ही तो था जो उस दिन मुझे सुन्दर शास्त्रीय नृत्य दिखाने का प्रलोभन देकर ले गया था। जाकर देखा तो वहां विनाश का पूरा प्रबन्ध था। जैसे-तैसे बचकर निकला। वह भी मित्र ही था जिसके साथ साझे के व्यापार में मैंने अपना सारा धन लगा दिया था, और उसने व्यापार में घाटा दिखाकर मुझे दर-दर का भिखारी बनाकर छोड़ दिया। हमारे अपने विचार और हमारी अपनी दुर्बलताएं भी विनाश के कारण बनती हैं। धर्म का विनाश, धन का विनाश, स्वास्थ्य का विनाश, प्रियजन का विनाश, शक्ति का विनाश, स्वाध्याय का विनाश, पवित्रता का विनाश, जप-तप का विनाश आदि अनेकविध विनाशों से हम ग्रस्त होते रहते हैं। कभी अधूरे विनाश के बाद हम संभल जाते हैं और कभी पूर्ण विनाश ही होकर रहता है, जिसके बाद नये सिरे से हमें धर्म, धन आदि की पूंजी संग्रह करने का अथक प्रयास करना पड़ता है।
पर आज से हम सजग हो रहे हैं। अग्रनेता परमेश्वर से हम प्रार्थना करते हैं कि हे प्रभु ! हमें ऐसा बल दो कि जो भी हमें विनष्ट करने के लिए हमारे समीप आये, वह हमारे प्रतिघात से दूर जा गिरे। हम अपने आत्मा को भी जागरूक करते हैं। हे मेरे आत्मन् ! तुम वस्तुतः दुर्बल नहीं हो, अपने आलस्य और प्रमाद से दुर्बल बने हुए हो। कर दो शंखघोष और टूट पड़ो विनाश करनेवालों पर। छक्के छुड़ा दो आन्तरिक और बाह्य दुर्दान्त रिपुओं के। हे परमात्मा! और हे मेरे आत्मा इस प्रकार विनाश से बचाकर तुम हमें वृद्धि और उन्नति के मार्ग पर ले चलो। शारीरिक, मानसिक, आत्मिक, सामाजिक सर्वविध उन्नति में हमें अग्रणी बना दो। हे अग्रनायक परमात्मन् ! तुमसे हम शक्ति की याचना करते हैं। हे हमारे जीवात्मन्! तुम्हें हम जगाते हैं, उद्बोधन देते हैं, उत्साहित करते हैं।
हमें लगता है कि देशवासियों द्वारा वेदों का स्वाध्याय न करने व वैदिक शिक्षाओं से अनभिज्ञ रहने और वेदेतर अनेक महत्वहीन बातों को मानने के कारण ही यह विषम स्थिति आई है। यदि हमारे समाज के अग्रणीय सभी लोगों ने वेदों का महत्व जानकर उसका अध्ययन किया होता और ऋषि दयानन्द, पं. लेखराम, स्वामी श्रद्धानन्द, स्वामी दर्शनानन्द तथा पं. गुरुदत्त विद्यार्थी जी आदि की तरह से प्रचार किया होता तो 1947 की व आज की यह विषम स्थिति नहीं आती। आज लेख का विषय निर्धारित करते समय हमारे मन में पहले विचार आया कि हम ऋग्वेद के मन्त्र ‘इन्द्रं वर्धन्तो अप्तुरः कृण्वन्तो विश्वमार्यम्। अपघ्नन्तो अराव्णः।।’ मन्त्र पर कुछ लिखे। फिर मन बदला और ऋग्वेद का ही 10/159/3 मन्त्र ‘मम पुत्राः शत्रुहणो’ की ओर गया जिसमें एक माता घोषणा करती है कि मेरे पुत्र बाह्य और आन्तरिक शत्रुओं का नाश करने वाले हैं। इनसे भी हमारी सन्तुष्टि नहीं हुई और हमने उपर्युक्त मन्त्र को चुना। हम आशा करते हैं कि पाठक इस मन्त्र में प्रत्येक देशभक्त वेद प्रेमी की भावनाओं को सजीव व मूर्त रूप में विद्यमान पायेंगे। हमारे सहस्रों निर्दोष बन्धु आतंक का शिकार हो चुके हैं। अब यह सिलसिला बन्द होना चाहिये। देश की वर्तमान परिस्थितयों में हम आर्यसमाज की स्थिति पर विचार करते हैं तो हमें निराशा होती है। क्या आर्यसमाज अपना कर्तव्य भलीभांति निभा रहा है? इस प्रश्न का उत्तर हमें उत्साहवर्धक न मिलकर निराशा में मिलता है। हमें यह भी विचार आया कि जब दो-तीन हजार वर्ष पूर्व भारत में नास्तिक मतों का प्रचार बढ़कर वेद व वैदिक सनातन धर्म अस्तांचल को जा रहे थे तो किसी कन्या ने अपने घर में बैठे हुए विलाप की आवाज में पुकारा कि क्या देश में कोई वेद का विद्वान है जो विलुप्त हो रही वैदिक धर्म व संस्कृति की रक्षा करेगा? संयोग वहां उसी रास्ते से गुजर रहे स्वामी शंकराचार्य के कानों में उस बालिका के शब्द पड़े। इसे सुनकर स्वामी शंकराचार्य जी ने डिन्डिम घोष किया कि हे पुत्री तू चिन्ता न कर! जब तक भारत में शंकराचार्य जीवित है, संसार की कोई ताकत वेद मत का लोप नहीं कर सकती। भावी समय में शंकराचार्य जी ने अपने शब्दों को सफल सिद्ध किया। आज भी शंकराचार्य जी और ऋषि दयानन्द जी की तरह एक ऐसे विद्वान संन्यासी वेदज्ञ नेता कि आवश्यकता है जो उनका प्रतिनिधि व प्रतिरुप हो। हमें लगता है कि वर्तमान परिस्थितियों में हमें देश के प्रधानमंत्री, देश की सेना व सुरक्षाबलों का अपनी पूरी शक्ति से सर्पोट व समर्थन करना चाहिये। हमारी सेना और हमारे सुरक्षाबल ही हमारी आशा की किरण हैं। इन्हीं के जोश, उत्साह, हिम्मत और बल पर देश सुरक्षित है। हम भारतीय सेना, अपने सुरक्षा बलों के देश प्रेम, देश भक्ति, त्याग व बलिदान की भावना को नमन करते हैं।
–मनमोहन कुमार आर्य
अच्छा लेख !
नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद अपने व्यस्त जीवन से समय निकल कर वेद पढ़ने के लिए। सादर नमस्ते।
नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद अपने व्यस्त जीवन से समय निकल कर वेद पढ़ने के लिए। सादर नमस्ते।