लघुकथा : अपने लोग
पढ़ाई पूरी करने पर विक्रम को जब कोई उचित रोजगार नहीं मिला तो उसने सब्जी मंडी के आढ़तियों के यहाँ अकाउंटेंट की नौकरी कर ली l महज 21 वर्ष की आयु में उसे दुनियादारी की इतनी समझ नहीं थी l अलग माहौल में वह असहज सा महसूस करता l एक दिन उसे जीप के साथ सब्जी और फलों की सप्लाई करने के लिए किसी रुट पर भेजा गया l सामान को उतारने के लिए एक पल्लेदार भी साथ था l जिस मालवाहक जीप को किराये पर लेकर माल भरा गया उसका मालिक विक्रम के नजदीकी इलाके का ही एक व्यक्ति निकला l जीप का मालिक गाड़ी चला रहा था और उसके साथ उसका एक दोस्त भी था l
विक्रम को लगा कि अपने लोग हैं तो उसे दिन भर माल बेचने में कोई परेशानी नहीं होगी l मगर सब कुछ उसकी आशाओं के विपरीत घटित होने लगा था l पुरे रास्ते ड्राईवर ने विक्रम को अनावश्यक रूप से यह कहकर चिड़ाना शुरू कर दिया कि अगर यही काम करना था तो इतनी पढाई क्यों की ? विक्रम का ध्यान माल की बिक्री पर अधिक था, क्योंकि शाम होते – 2 सब्जी और फलों से लदी गाड़ी को दुकानदारों को बेचकर खाली करना था l इसीलिए वह उनसे उलझना नहीं चाह रहा था l
गर्मी के दिन थे l जीप में आम की पेटियां भी लदी हुई थी l पल्लेदार को साथ लेकर विक्रम दुकानदारों को माल बेचने और पैसे का हिसाब करने के लिए बीच – 2 में उतर जाता था l ड्राईवर और उसका दोस्त जीप में ही रहते l माल बेचने की उहापोह में समय का पता ही नहीं चला l शाम होने को आई तो पता चला कि आम की पेटियों के 5 नग नदारद थे l विक्रम परेशान हो उठा, सारी जवाबदेही की जिम्मेदारी उसी की थी l वह बार – 2 याद करने की कोशिश करता कि किसी दुकानदार को ज्यादा माल तो नहीं दे दिया ?
ड्राईवर और उसका साथी अब माल के नदारद होने पर उसका उपहास उड़ाने की चेष्टा करते प्रतीत होते l जैसे – तैसे वो सारा माल बेच कर बापिस लौट आये थे l शाम को घर लौटने पर किसी विश्वासपात्र व्यक्ति से उसे आम की पेटियों के नग नदारद होने की सच्चाई पता चली तो वह भीतर तक आहत हो उठा l अपने लोग अपनी करामात दिखा गए थे l भारी मन से वह ‘अपने’ शब्द के मायने तलाशने लगा था l
-मनोज चौहान