कविता- जो मैं पंछी होता
न होती कोई सीमा
न होता कोई बंधन ।
मैं उड़के पल में चला जाता
जहां कहता मेरा पागल मन ।।
नदीयों का जल मैं पीता
हवाओं में उड़ता फिरता ।
कभी बादलों को छूने को
मैं नील गगन में उड़ता ।।
पेड़ों पे बैठ मैं ताजे फलों को खाता
ऊंचे पाहाड़ों पे अपना घर मैं बनाता ।
चमकती चांदनी से घर को मैं चमकाता
बहते झरनों संग गीत खुशी के गाता ।।
ना होती किसी से हिंसा-द्वेष
ना कोई बिन बात हमसे झगड़ पाता ।
ना पैसों की खातिर खटपट होती
ना कोई जीवन में आग लगाता ।।
इंसानी कुकर्मों से जो कभी प्रकृति रुठ जाती तो
प्रकृति की विशाल भुजाओं में मैं बस सिमट जाता ।
इन स्वार्थ के रिस्ते-नातों से मैं दूर कहीं चला जाता
जो मैं पंछी होता तो प्रकृति की गोद में ही खो जाता ।।
प्रभू के बनाए इस जग को
मैं और चारचांद लगाता ।
जो मैं कोई पंछी होता तो
बस प्रकृति के राग सुनाता ।।
— मुकेश सिंह