ब्रह्मसमाज के आचार्य श्री नगेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय का बंगला भाषा में लिखित ऋषि दयानन्द चरित का संक्षिप्त विवरण
ओ३म्
ऋषि दयानन्द के अनेक विद्वानों द्वारा रचित बृहत्त जीवन चरितों में प्रमुख जीवन चरित पं. लेखराम रचित है जो उर्दू में लिखा गया था। इसका हिन्दी अनुवाद हुआ जो सर्वाधिक लोकप्रिय है और वर्तमान में यही आर्यसमाज में प्रचलित है। उसके बाद पं. गोपाल राव हरि, पं. देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय, स्वामी सत्यानन्द, डा. भवानीलाल भारतीय, श्री हरविलास सारदा (अंग्रेजी भाषा में। अब इसका हिन्दी अनुवाद भी उपलब्ध है।), श्री रामविलास शारदा, मास्टर लक्ष्मण आर्य आदि हैं। अन्य अनेक विद्वानों ने भी ऋषि दयानन्द के छोटे-बड़े अनेक जीवन चरित लिखे हैं जिनमें पंडित इन्द्र विद्यावाचस्पति, पं. क्षितीज वेदालंकार, स्वामी जगदीश्वरानन्द, आचार्य भगवानदेव, अजमेर, प्रसिद्ध हिन्दी साहित्यकार विष्णु प्रभाकर, श्री यदुवंश सहाय आदि हैं। संस्कृत में एक काव्यात्मक जीवन चरित्र ‘दयानन्द–दिग्विजयम्’ नाम से पं. अखिलानद शर्मा ने लिखा है जिसमें श्लोकों के हिन्दी अर्थ भी दिए गए हैं। एक जीवन चरित बंगला भाषा में ‘श्री श्री दयानन्द चरित’ नाम से श्री सत्यबन्धु दास ने लिखा था जिसका अनुवाद पं. प्रियदर्शन सिद्धान्तभूषण, आर्य समाज, कलकत्ता ने किया है। इसका सम्पादन एवं परिष्कार डा. भवानीलाल भारतीय जी ने किया जो आर्यसमाज-19- विधानसरणी-कलकत्ता की मासिक पत्रिका आर्यसंसार के एक विशेषांक के रूप में सन् 1986 में प्रकाशित हुआ। इनसे अतिरिक्त स्वामी दयानन्द जी का एक लघु जीवन चरित बंगला भाषा में कलकत्ता ब्रह्मसमाज के आचार्य श्री नगेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय ने लिखा था जो स्वामी दयानन्द जी के निधन के तीन वर्ष बाद सन् 1886 मंे प्रकाशित हुआ था। डा. भवानीलाल भारतीय के अनुसार स्व. पं. दीनबन्धु वेदशास्त्री ने सर्वप्रथम यह सूचना दी थी कि स्वामी दयानन्द का प्रथम बंगला जीवनचरित श्री नगेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय ने लिखा था। डा. भवानीलाल भारतीय सन् 1985 के मई मास में आर्यसमाज बड़ा बाजार कलकत्ता के उत्सव में गये तो वहां उन्होंने समय निकाल कर नेशनल लाइब्रेरी, कलकत्ता में इस पुस्तक की तलाश की। उक्त पुस्तकालय के संस्कृत विभाग के अध्यख डा. रामदुलारसिंह ने इस कार्य में उनकी सहायता की और 101 वर्ष पुरानी (डा. भारतीय जी के अनुसार) इस दुर्लभ पुस्तक की फोटोस्टेट कापी उन्हें उपलब्ध हो गई। डा. भारतीय ने इस पुस्तक का हिन्दी अनुवाद अपनी शोधछात्रा कु. नीरोत्तमा शर्मा से कराया। स्वामी दयानन्द के जीवनचरित विषयक शोध में रुचि रखने वाले पाठकों को इस सामग्री को देखकर प्रसन्नता होगी, ऐसा अनुमान डा. भारतीय जी ने सन् 1988 में इसके प्रकाशन के अवसर पर किया है। इस पुस्तक के सतर्क अध्ययन से पाठकों को पता चलता है कि चरित लेखक चट्टोपाध्याय महाशय ने स्वामी दयानन्द के प्रत्यक्ष दर्शन कलकत्ता, मुम्बई तथा लाहौर में किये थे। एक प्रबुद्ध प्रत्यक्षदर्शी द्वारा लिखा गया महर्षि दयानन्द जी का यह जीवन एवं कार्य-वृतान्त प्रथम बार सन् 1988 में डा. भवानीलाल भारतीय के प्रयासों से अध्येताओं के समक्ष आया जब इसका प्रथम प्रकाशन वैदिक साहित्य के मर्मज्ञ एवं शोध विद्वान पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी ने वेदवाणी मासिक पत्रिका के जनवरी, 1988 के दयानन्द–विशेषांक में किया।
अब हम उपर्युक्त कथित बंगला जीवनचरित से कुछ आरम्भिक सामग्री प्रस्तुत कर रहे हैं। ‘‘अधुनातन युग में भारतवर्ष के कुछ नक्षत्र प्रज्जवलित होकर कुछ काल के लिये नयनरंजन (नेत्रों को लाभान्वित कर) करके अस्तमित हो गये थे। दयानन्द उनमें से एक उज्जवल नक्षत्र थे। शंकराचार्य के बाद दयानन्द, दयानन्द का पाण्डित्य, दयानन्द की बुद्धिमत्ता, दयानन्द का धर्मोत्साह, सब चीजें असाधारण थी। इस असाधारण पुरुष पर भारत भूमि ने बहुत आशास्थापन किया था। किन्तु काल के कुठाराघात ने उस आशा को तिमिराच्छन्न कर दिया। उनमें शारीरिक सुदीर्घता, सुदृढ़ता और विलक्षण सबलता थी। जैसा देह वैसा मन। भगवान् ने बलवान् देह में बलवान् मन की स्थापना की थी। जैसा कि एक महाराष्ट्रीय पण्डित ने कहा था, ‘दयानन्द पांच पण्डितों की सी विद्वता तथा पांच पहलवानों का सा बल रखते हैं।’
दयानन्द जब धर्मप्रचार के लिये कलकत्ता आये, तो चारों ओर हलचल मच गई। बालक, वृद्ध, स्त्री, सब उन्हें देखने तथा सुनने के लिये उमड़ पड़े। उनकी तर्क–शक्ति और उनका शास्त्रीय ज्ञान देख कर लोग आश्चर्य चकित रह गये। उनके पास जाकर बहुत से धर्मजिज्ञासु अपने प्रश्नों का उत्तर प्राप्त कर अपने आपको तृप्त अनुभव करते थे।
जैसे गुणी व्यक्ति ही गुणों को ग्रहण कर पाते हैं, वैसे दूसरे नहीं। स्वर्गीय श्री केशववचन्द्र सेन ने उन्हें अपने घर ले जाकर सम्मानित किया तथा प्रकाशसभा (सार्वजनिक सभा) में उनके वचनों को श्रवण किया था। केशव बाबू के घर में जिस दिन दयानन्द का प्रथम व्याख्यान सुना, उस दिन एक नई चीज के हमने प्रत्यक्ष दर्शन किये। संस्कृत में वे इतने सरल और इतने मधुर व्याख्यान दे पाते हैं, यह मुझे मालूम नहीं था। उन्होंने इतनी सरल संस्कृत में व्याख्यान दिये कि जो व्यक्ति महामूर्ख थे, वे भी उनकी भाषा को सहज ही समझने लगे। मुझे और भी एक चीज आश्चर्य में डाल देने वाली लगी थी। अंग्रेजी भाषा से अनभिज्ञ हिन्दू संन्यासी के मुंह से धर्म और समाज के बारे में इतना उदार मत इससे पहले कभी सुनने को नहीं मिला था।’
कुछ साल बाद बम्बई नगर में जाकर सुना कि दयानन्द वहां भी धर्म-प्रचार कर रहे हैं। एक सम्भ्रान्त मित्र के साथ उनको देखने के लिये गया। देखा, अरब सागर के निकट एक गृह में बैठे हैं। अनन्त सुनील सागर सामने प्रसारित था। सागर की तरंगे दयानन्द के घर के निकट लहरा रही थीं। हमने उनको अपना परिचय दिया। बहुत से लोग उन्हें घेर कर बैठे थे तथा अनेक विषयों पर प्रश्न कर रहे थे। दयानन्द निरन्तर हिन्दी में प्रत्युत्तर दे रहे थे। सुना दो दिन रात ऐसे ही प्रवृत्त रहकर वे जिज्ञासुओं के प्रश्नों की मीमांसा करते रहे हैं।
महाराष्ट्र के एक भद्र पुरुष कहने लगे-इनकी (पौराणिकों की) सभी पौराणिक कहानियां सत्य लगती है। दयानन्द उसी समय सतेज होकर बोले —‘‘सब झूठ बात है।” जब वे कलकत्ता आये थे, सारी बातचीत व भाषण संस्कृत भाषा में करते थे। बम्बई में आकर देखा कि संस्कृत छोड़ कर हिन्दी में व्याख्यान कर रहे हैं। इस बात का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा–‘‘इस विषय में पहले उनकी भूल थी। उनका उद्देश्य ही जब प्रचार है तब जिस भाषा में बोलने पर सर्व साधारण समझें, उसी भाषा में ही बोलना ठीक है।” एक और विषय में उनमें परिवर्तन देखा। उनका वो संन्यासी वेश (मात्र कौपीन धारण वाला) नहीं है। एक लाल (गेरुआ) वस्त्र धारण करके वे बैठे हैं।
बम्बई नगर में दयानन्द का आर्यसमाज देखा। देखा कि अनेक भद्र पुरुष एक साथ बैठे सम्भाषण और तर्क वितर्क कर रहे थे। एक दिन एक खुले स्थान में आर्यसमाज के जन (साधारण) अधिवशन में मूर्तिपूजा और निराकार उपासना विषय पर अंग्रेजी में एक भाषण होने के बाद अनेक शिक्षित, अंग्रेज, महाराष्ट्रीय, गुजराती अपनी-अपनी भाषा में सुविधानुसार उस भाषण की समालोचना करने लगे। वार्ता के उपरान्त दयानन्द जी कहने गे–‘‘यद्यपि मैं अंग्रेजी तो नहीं जनता फिर भी समालोचना को सुन कर भाषण का मर्म समझ में आ गया है।” वे आहिस्ता आहिस्ता दस मिनट तक बात करते रहे और श्रोतृ वृन्द के समक्ष अपना भाव आश्चर्यजनक रूप में प्रस्तुत किया। इसी का नाम क्षमता है। सभा आरम्भ होने से पहले शायद किसी के साथ पूना गमन के बारे में बातचीत कर रहे थे।
उन्होंने कहा–‘‘पूना रेलवे स्टेशन पर उतर कर देखा कि बहुत सारे लोग उनका इन्तजार कर रहे हैं। कुछ लोग एक हाथी पर सिंहासन लगा कर मुझे ले जाने के लिये आये हैं और प्राचीन सम्प्रदाय के लोग जो दयानन्द के विरोधी थे, एक गधे को सजा कर उनकी अभ्यर्चना के लिए उपस्थित हुए थे। हाथी और गधा, दयानन्द के लिये ये दोनों ही वाहन उपस्थित थे। जो लोग हाथी लाये थे, वे उनके निकट जाकर बोले-‘‘आपके लिये हाथी उपस्थित है। आप उस पर आरोहण करके नगर में चलिए।” दयानन्द ने उत्तर दिया–‘‘मैं गरीब संन्यासी हूं। हाथी पर सवारी करना मुझे शोभा नहीं देता। राजपथ पर सैकड़ों लोग पैदल चलते हैं अतः मैं भी पैदल ही जाऊंगा। ऊंचे स्थान पर बैठने से ही यदि मानवृद्धि होती है तो वृक्ष के ऊपर जो कौवे बैठे हैं, वे तो हमसे भी ज्यादा माननीय हैं।” वे विनम्र भाव से पैदल पूनानगर में गये। वहां पर हाथी और गधा दल में आपस में मारपीट भी हुई। गधा दल के कई लोगों को राजदण्ड भी मिला।
देखा, बम्बई नगर में दयानन्द को लेकर बहुत बड़ा आन्दोलन शुरू हुआ है। यहां-वहां उनके बारे में बातचीत हो रही है। एक वेदज्ञ हिन्दू संन्यासी मूर्तिपूजा का प्रतिवाद करके निराकार की उपासना का समर्थन कर रहा है, जातिभेद के विरुद्ध है, बालविवाह और बाल-विधवा का प्रतिरोध कर रहा है, जो कि अंग्रेजी जानता तक नहीं, पाश्चात्य ज्ञान जिसके पास तक नही फटका। उससे लोगों के मन में और भी आश्चर्य हुआ। हिन्दू समाज में ऐसा आन्दोलन इससे पहले कभी नहीं हुआ था।”
यह ऋषि जीवन काफी लम्बा है। एक लेख में समा नहीं सकता। हमने लगभग पूरे जीवन चरित का 20 से 25 प्रतिशत भाग ही दे सके हैं। वेदवाणी के जनवरी, 1988 अंक में प्रकाशित होने के बाद यह पुस्तक रुप में छपा हो, इसकी हमें जानकारी नहीं है। हो सकता है कि यह मसिक पत्रिका ‘वेद प्रकाश’ में प्रकाशित हुआ हो। पाठक यदि इच्छुक हों तो हम इसे शेष दो किश्तों में पूरा कर फेसबुक पर डाल सकते हैं वा इमेल भी कर सकते हैं। कृपया इसकी जानकारी देने की कृपा करें। इस संक्षिप्त लेख मे ऋषि दयानन्द के कलकत्ता, मुम्बई व पूना प्रवास का जो संक्षिप्त वर्णन आया है, लेख की वर्णन-शैली के कारण वह हमें बहुत अच्छा लगा है। इसी कारण हम इसे पाठकों से साझा कर रह हैं। लेख की महत्ता पर और कुछ न लिखते हुए हम पाठकों से इस पर उनकी प्रतिक्रियायें आमंत्रित करते हैं।
–मनमोहन कुमार आर्य