ग़ज़ल
हर अदावत भूल जाना चाहता हूँ।
प्यार की बस्ती बसाना चाहता हूँ।
इस कदर जो बढ़ रही फ़िरकापरस्ती,
पढ़ क़ुरां गीता सुनाना चाहता हूँ।
हार कैसे मान लूँ मैं जिंदगी से,
दाँव जो हर पल लगाना चाहता हूँ।
जो कभी खाए नहीं भरपेट खाना,
अब उन्हें रोटी दिखाना चाहता हूँ।
है पता मुश्किल बड़ा इंसाफ मिलना,
पर अदालत घूम आना चाहता हूँ।
अश्क का आया समंदर पार करके,
यार खारापन दिखाना चाहता हूँ।
आ रहें हमदर्द बनके पास ‘पूतू’,
पर हकीकत मैं बताना चाहता हूँ।
— पीयूष कुमार द्विवेदी ‘पूतू’