आघुनिक काल में सभी मतों का अन्धविश्वास-ग्रस्त होना और उन्हें दूर करने में उदासीन होना महान आश्चर्य
ओ३म्
मनुष्यों की समस्त जनसंख्या इस भूगोल के प्रायः सभी व अनेक भागों में बस्ती है। सारी जनसंख्या आस्तिक व नास्तिक दो मतों व विचारधाराओं में बटी हैं। बहुत से लोग ऐसे हैं जो ईश्वर व जीवात्मा के अस्तित्व को न तो जानते हैं और मानते हैं। वह खुल कर कहते हैं कि ईश्वर व जीवात्मा का अस्तित्व नहीं है। ऐसे लोगों ने इन दो सनातन सत्ताओं को जानने के लिए कोई विशेष प्रयत्न किये हों ऐसा प्रतीत नही होता। हमारे आर्य समाज के वैदिक विद्वान भी सम्यक् रूप से संगठित न होने के कारण ऐसे लोगों तक अपने विचार व विचारधारा तथा ईश्वर व जीवात्मा के अस्तित्व के प्रमाणों को प्रभावशाली ढंग से पहुंचाने में असमर्थ रहे हैं जिसका परिणाम यह हो रहा है कि ऐसे लोगों की संख्या संसार में बढ़ती जा रही है। दूसरे लोग ऐसे हैं जो ईश्वर व जीवात्मा के अस्तित्व में किसी न किसी रूप में विश्वास रखते हैं। यह लोग अनेक मत-मतान्तरों में बंटे हुए हैं। भारत से बाहर यह आंशिक आस्तिक लोग ईसाई व इस्लाम मत के अनुयायी हैं। अधिकांश नास्तिक जिन्हें कम्युनिस्ट विचारधारा के वाहक व पोषक कह सकते हैं वह भी बड़ी संख्या में भारत से इतर देशों रूस व चीन आदि में रहते हैं। इन सभी लोगों में ईसाई व नास्तिक लोगों ने सांसारिक वा भौतिक विज्ञान में आशातीत उन्नति की है जिससे इन्होंने अनेक लोगों के जीवन भौतिक सुखों से परिपूर्ण कर दिए हैं परन्तु आध्यात्मिक दृष्टि से यह लोग आज भी वेद और वैदिक विज्ञान की दृष्टि से पिछड़े व अनुन्नत हैं। यह प्रसन्नता की बात है कि भारत में आविभूर्त योग विज्ञान अपने विभिन्न रूपों, मुख्यतः आसन व प्राणायाम के रूप में, सारे संसार में लोकप्रियता प्राप्त कर गया है। हमें आशा है कि कालान्तर में इस योग विज्ञान के द्वारा मुख्यतः यूरोप में सच्ची आध्यात्मिकता का उदय हो सकता है। हमें यह भी आशा है कि संसार के कुछ वर्ष बाद योगमय हो जाने पर स्वामी रामदेव जी व उनके कुछ अनुयायी सच्ची वैदिक आध्यात्मिकता पर भी अपना ध्यान केन्द्रित करेंगे और तब यह वेदों की विश्व पर दिग्विजय के रूप में होगा।
अन्धविश्वासों की दृष्टि से सभी मतों को देखा जाये तो वेद वा वैदिक मत को छोड़कर संसार के सभी मतों की स्थिति एक समान ही दिखाई देती है। भारत में बौद्ध, जैन, पौराणिक सनातन मत व अन्य अनेकानेक मत हैं जो ईश्वर व जीवात्मा संबंधी सत्य विचारों एवं ईश्वर की उपासना पद्धति की दृष्टि से सत्य पद्धति व परम्पराओं से काफी दूर हैं। वेदों के अनुसार, तर्क व युक्तियों के आधार पर ईश्वर सच्चिदानन्द, निराकार, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, अनादि, अविनाशी, अमर, सभी प्राणियों का जन्मदाता, पालनकर्ता, प्राणर्त्ता-मृत्युदाता व कर्मफलदाता आदि सिद्ध होता है। परन्तु मनुष्य इस ईश्वर को न जानकर वा जानते हुए भी इसके विपरीत उसकी मूर्ति बनाकर व बनी हुई किसी एक नहीं अपितु अनेकानेक देव-मूर्तियों जिनकी संख्या लगभग एक सौ व अधिक भी हो सकती है, की पूजा व उपासना करता है और ऐसा करके स्वयं को धार्मिक व ईश्वर भक्त होना मानता है। प्रश्न यह है कि जब ईश्वर निराकार है तो उसकी मूर्ति बन ही नहीं सकती। अतः किसी मूर्ति को बनाकर उसे ईश्वर की मूर्ति मानना घोर अविद्या है जिसका परिणाम अविद्या के परिणामों की भांति ही घोर क्लेश के रूप में सामने आता है।
अब प्रश्न यह है कि यदि ईश्वर निराकार है, उसकी मूर्ति नहीं बन सकती और कोई या हम बना लें तो उसका परिणाम क्लेश होगा तो फिर ईश्वर की उपासना वा पूजा कैसे की जाये? इसका सरल उत्तर है कि हम सृष्टि को देखकर इसके बनाने वाले व इसे चलाने अर्थात् पालन करने वाली सत्ता ईश्वर का चिन्तन करें। इस प्रकार ईश-चिन्तन करना ही ईश्वर के निकट पहुंचने का मार्ग है तथा ईश्वर के चिन्तन-मनन व उसके गुणों द्वारा उसकी स्तुति कर उसे प्रसन्न करना ही ईश्वर की पूजा व उपासना है। ईश्वर के उपासना के लिए ध्यान की स्थिति में बैठकर ईश्वर के प्रति कृतज्ञता का भाव लाना और उसे सृष्टि को बनाने, हमें मनुष्य जन्म देने व अन्य अनेक सगे संबंधी तथा धन ऐश्वर्य आदि देने के लिए उसका धन्यवाद करना भी उपासना में सम्मिलित है। वेद ईश्वर का ज्ञान है। उसका स्वाध्याय करना व उसके अर्थों को यथार्थ रूप में जानना भी ईश्वर की पूजा वा उपासना के अन्तर्गत ही आता है। इस उपासना विधि के कार्य में सहायता के लिए महर्षि दयानन्द जी की पंचमहायज्ञविधि और संस्कारविधि आदि पुस्तकों सहित उनके अन्य ग्रन्थों सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका एवं आर्याभिविनय आदि का अध्ययन व मनन भी लाभकारी होता है। ऐसा करने से हमें न केवल ईश्वर सहित जीवात्मा के स्वरुप का ज्ञान होगा वहीं संसार के प्रति अपने सभी कर्तव्यों का ज्ञान भी होगा जिससे हम ईश्वर की अपेक्षा के अनुरुप अपना जीवन व्यतीत कर सकते हैं।
इस प्रकार से ईश्वर की जो उपासना होगी वह पूर्णतः यथार्थ एवं ईश्वर की अपेक्षानुसार होगी। उपासना में मनुष्य ईश्वर से क्या-क्या बातें, गुणवर्णन व प्रार्थनायें करता है, वह भी महत्वपूर्ण होता है। इसके लिए महर्षि दयानन्द ने प्रातः व सायं समय में की जाने वाली सन्ध्या-उपासना में वेद मन्त्रों का उसके हिन्दी अर्थों सहित विधान किया हुआ है। जिन्हें बोलना व उनके अर्थों पर विचार करना व मन्त्रों के एक-एक शब्द को जानने का प्रयत्न करना भी आवश्यक है। ऐसा करके ही ऋषि दयानन्द ईश्वर के महान उपासक बनने के साथ विश्व के सर्वोत्तम व सर्वोपरि सुधारक, मार्गदर्शक एवं गुरु बने हैं। यदि हम उनके पदचिन्हों का अनुसरण करते हैं तो हम और कुछ बने न बने, बहुत कुछ बन भी सकते हैं, परन्तु एक अच्छे उपासक तो बन ही सकते हैं। अतः हमें विचार करने के साथ उस का पालन वा आचरण भी करना चाहिये जिससे हमारी आत्मा की उन्नति होगी और ऐसा होने से हमारे गुण, कर्म व स्वभाव तो सुधरेंगे ही साथ ही आत्मा का बल भी बढ़ेगा जिससे हम मृत्यु के दुःख को भी प्रसन्नता पूर्वक यथासमय सहन कर पायेंगे। यह वैदिक उपासना की महत्ता, ज्येष्ठता व श्रेष्ठता है। इसी प्रकार स्वाध्याय करते हुए सभी वैदिक विधानों को जानकर उनके अनुसार जीवनयापन व आचरण करने से जीवन को श्रेष्ठ बनाया जा सकता है।
महर्षि दयानन्द जी ने अपने ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में नास्तिक व वैज्ञानिकों की ईश्वर व जीवात्मा संबंधी समस्त शंकाओं का योग्यतापूर्वक समाधान किया है। भारत सहित संसार के प्रायः सभी मुख्य व इतर मतों के अन्धविश्वासों व अविद्या को प्रस्तुत कर उनकी समीक्षा कर स्वामी दयानन्द जी ने अभूतपूर्व कार्य किया जिससे सभी मतों के मनुष्य अन्धविश्वास और अविद्या से स्वयं को मुक्त कर सत्य मत वा सत्य धर्म का निर्धारण कर सकते हैं। सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन कर मनुष्य की अविद्या व अन्धविश्वास समाप्त हो जाते हैं और वह सत्य धर्म वेदों व वैदिक विधानों, नियमों, मान्यताओं, सिद्धान्तों व शिक्षाओं को प्राप्त होता है। हमारी स्वयं की भी मत-विश्वास परिवर्तन की यही कहानी रही है और आज हमारा सारा परिवार वैदिक मत को ही मानता व उसका आचरण करता है। हम सुधी पाठकों से सभी मतों के अज्ञान, अन्धविश्वास व अविद्या को जानने के लिए सत्यार्थप्रकाश का अनुशीलन करने का अनुरोध करते हैं। इन सब मतों में आज भी वह सभी अविद्यायुक्त अन्धविश्वास विद्यमान है जो स्वामी दयानन्द जी के समय में थे। इससे यह अनुमान लगता है कि सभी मतों के आचार्य अविद्या व अन्धविश्वासों को दूर करना नहीं चाहते क्योंकि उनका हित व स्वार्थ तथा महत्वाकांक्षायें उन्हें यथावत् बनाये रखकर ही पूरी होती हैं। महर्षि दयानन्द, स्वामी श्रद्धानन्द, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, पं. लेखराम, स्वामी दर्शनानन्द, स्वामी सर्वदानन्द, स्वामी स्वतन्त्रतानन्द जैसे लोग होना संसार में दुर्लभ व प्रायः असम्भव है। हम अपने अनुभव के आधार पर यह समझते हैं कि वेदेतर प्रमुख मताचार्यों व उनके अनुयायी वेदविरुद्ध मार्ग पर चलकर अपने इहलौकिक एवं पारलौकिक जीवन को सफल नहीं कर सकते। ईश्वर का कर्म-फल विधान अटल व सत्य है। इसी के अनुसार कोई किसी मत को माने या न माने, उनका न्याय तो जन्म व मरण के मध्य व पश्चात एक ही ईश्वर व उसके कर्मफल सिद्धान्त पर होना है। तब इन मताचार्यों व इनके अनुयायियों का क्या होगा, इसका अनुमान किया जा सकता है। यदि कोई बच्चा विद्या प्राप्ति के प्रति उदासीन हो जाये तो वह विद्वान नहीं बन सकता। कोई मनुष्य अच्छा स्वास्थ्यवर्धक भोजन न करे, उसकी उपेक्षा करे व उससे उदासीन रहे तो उसका स्वास्थ्य अच्छा नहीं होगा और वह स्वस्थ व दीर्घजीवन प्राप्त नहीं कर सकेगा। इसी प्रकार कोई व्यक्ति सत्य धर्म व उसके सिद्धान्तों की उपेक्षा करेगा और अन्धविश्वास नहीं छोड़ेगा तो उसका परिणाम भी अच्छा न होकर खराब ही होगा। अतः सभी मनुष्यों को उदासीनता को छोड़कर अपने-अपने मत व उसकी मान्यताओं के सत्य व असत्य-मुक्त होने पर ध्यान देना चाहिये। वैदिक विधान के अनुसार सत्य को ग्रहण करना चाहिये और असत्य का त्याग करना चाहिये। इसी से मानवता का हित होगा और सभी मनुष्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष के साधक व अधिकारी बन सकते हैं। इति।
–मनमोहन कुमार आर्य
मनमोहन भाई , लेख अच्छा लगा . इंसान की यह विडंबना ही है कि लोग जाप तो बहुत करते हैं, इश्वर का नाम भी लेते हैं लेकिन जो भगवान् चाहता है , उस को नज़रंदाज़ कर देते हैं . अगर कोई भगवान् का नाम ना लेते हुए भी लोगों का भला करता है तो उस को भी अस्तक लोग नफरत करें तो यह सरासर गलत होगा .
नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद् आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। आपके विचार ग्राह्य हैं। मनुष्य को ईश्वर की भक्ति उपासना एवं जप-तप आदि सभी कार्य सही विधि से करने चाहिए और साथ ही समाज की सेवा भी पूर्ण कर्तव्य भावना से करनी चाहिए। ज्ञान और तदनुरूप कर्म में मेल होना चाहिए। धार्मिक लोगो को मनसा, वाचा व कर्मणा एक होना चाहिए। वह ज्ञान जिसका मनुष्य समाज के कामों में उपयोग न करे किसी काम का नहीं। आचरण का भी वही महत्व है जो ज्ञान का है। उत्तम विचारों के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद्। सादर।
मनमोहन भाई , सही विधि की परिभाषा सभी धर्मों के लोग अपने अपने ढंग से करते हैं और अपने आप को सही मानते हैं . यही सब झगड़ों की जड़ है . दुनीआं में इतने धर्म पैदा हो गए हैं और नए नए पैदा हो रहे हैं किः इस के साथ ही झगडे बढ़ रहे हैं क्योंकि हर कोई अपने आप को सही मानता है . मैंने तो एक दफा टीवी पर भी कुछ धर्म गुरुओं को आपस में झगड़ते देखा था और हम मिआं बीवी उन को देख हंस रहे थे .
आपके विचारों वा बातों से मैं सहमत हूँ. वेद किसी मनुष्य, महापुरुष, ऋषि व मुनि का रचा वा बनाया हुआ ग्रन्थ व इतिहास नहीं है। यह ईश्वर का दिया हुआ ज्ञान है। अन्तःसाक्षी से इसे जान सकते हैं। ईश्वर की उपासना के लिए हमें केवल ईश्वर के गुणों को जानना है और उनका चितन करते हुवे सर्वव्यापक ईश्वर का धन्यवाद् करना है क्योंकि इस संसार को बनाने वाला वही है और उसी ने हमें सुख भोगने के लिए यह मानव शरीर और समस्त पदार्थ बनाकर फ्री में दिए हुवे है। सादर।