ग़ज़ल
मात्रा भार 32, 16-16 पर यति
गर बांस से बनती बांसुरी, बँसवारी न रहती बेसुरी
हर बांस की कोठी करारी, गुलजारती बनकर बांसुरी
अपवाद होकर बज उठी है, एक दिन डली एक बांस की
स्वांस ने स्वर अपना दिया, तो बजने लगी यह बांसुरी।।
तन रूप रंग कैसा भी हो, पाँव चलता सरकता काठ बन
बन बांस तरु पुलकित हुआ, धुनी ने बजाई जब बांसुरी।।
मिल गया जौहरी को टुकड़ा, गिरा पाषाण का था वहीँ
जब तराशा गया हिरा हुआ, अंगुली नचाई लग बांसुरी।।
न बांस से बनती बांसुरी, न बांसुरी से बांस ही
विराग से बनता बांस है, व राग से उठी बज बांसुरी।।
मीठा बोलता गर बांस तो, लाठियां तनती भला कैसे
सहारा बन ही चला करती, बेसहारे की तन बांसुरी।।
भई गौतम लचक तो जरा, तना हुआ है बांस जैसा
दांत को खट्टा न कर अब, स्वाद चखा दे बन बांसुरी।।
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी
बहुत खूब !
सादर धन्यवाद आदरणीय