गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

 

दोस्ती यारी निभा कर चल दिए ।
बेवफा मुझको बता कर चल दिए ।

मुफलिसी का दौर भी अच्छा ही था
दोस्त आये, आजमा कर चल दिए ।

जो मिरी कश्ती के खेवनहार थे
बीच धारा में वो लाकर चल दिए ।

मानते थे जिनको अपनी जिंदगी
बज्म में नजरें झुका कर चल दिए ।

दिल नहीं लगता इबादत में मगर
मन्दिरों में सर झुकाकर चल दिए ।

याद उनकी अब शहादत है कहाँ
देश पे जो जां लुटाकर चल दिए ।

‘धर्म’ तू जिनके कदमों में था बिछा
दिल भरा, ठोकर लगा कर चल दिए ।

— धर्म पाण्डेय

One thought on “ग़ज़ल

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छी ग़ज़ल !

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