ग़ज़ल : बेटे छत खिड़की दरवाज़े और घर की अँगनाई बिटिया
बेटे छत खिड़की दरवाज़े और घर की अँगनाई बिटिया
सारे रिश्ते फूल चमेली और भीनी पुरवाई बिटिया
क़तरा क़तरा मोती बनकर निकला आँख की सीपी से
सात समन्दर सातों दरिया सीने में भर लाई बिटिया
मैंने इस एक झूठ को उससे जाने कितनी बार कहा
तेरी चूड़ी के जैसी है दुनिया की गोलाई बिटिया
आँखों में आकाश को भरकर जब आँगन से विदा हुई
सूरज का जा कान मरोड़ा तारों में मुसकाई बिटिया
रोक न पाया अपने आँसू जब उस तख़्ती को देखा
जिस पर नन्हे हाथों से तू लिखती थी अ-आ-ई बिटिया
कभी-कभी तो तीज त्योहारों पर आके मिल जाया कर
याद बहुत करती हैं तुझको तेरी चाची ताई बिटिया
अम्मा की कुछ फ़िक्र न करना उसकी तबीयत अच्छी है
राखी के दिन तुझको लेने आ जाएगा भाई बिटिया
— ए. एफ़. ’नज़र’
प्रिय नज़र भाई जी, अति सुंदर व सार्थक ग़ज़ल के लिए आभार.
आँखें नम हुई पढ़ बिटिया