कविता : ब्याही बेटी
बर्षों पहले
पास के गाँव में
ब्याही बेटी
रहती है फिक्रमंद आज भी
बूढी माँ के लिए
जबकि वह खुद भी
बन चुकी है अब
दादी और नानी l
अक्सर गुजरती
मायके के साथ लगती सड़क से
खिंची चली आती है
आँगन में बैठी
बूढी माँ के पास l
वह चुरा लेती है कुछ पल
माँ की सेवा के लिए
अपने भरे – पुरे परिवार की
जिम्मेदारियों के बीच भी l
पानी गर्म कर
नहलाती है माँ को
धोती है उसके कपड़े – लत्ते
संवारती है सलीके से
सिर पर उलझी हुई चांदी को
शायद वैसे ही
जैसे करती होगी माँ
जब वह छोटी थी l
बूढी माँ देखती रहती है
टुकर – 2
विस्मृत हुई स्मृतियाँ
बेटी के बच्चपन की
लगाती हैं छलांग अवचेतन से l
फेरती है हाथ प्यार से
बेटी के सिर पर
भावनाएं छलक पड़ती हैं
जीर्ण नेत्रों से
न चाहकर भी l
द्रवित हुई बेटी चाहती है दिखाना
मजबूत खुद को
बंधाती है ढाढस माँ को
उम्र की इस अवस्था में
अब बेटी
हो जाना चाहती है माँ !
-मनोज चौहान
अति सुन्दर ! बेटी कभी पराई नहीं होती
हौसला – अफजाई के लिए शुक्रिया मैम….!
मनोज साहब अत्यंत सम्वेंद्शील कविता है बहुत बधाई
शुक्रिया अर्जुन नेगी जी ….!