“गीत/नवगीत”
(मात्रा-भार, 17)
दरपन को झरोखा बनने दो
हर झील में पुष्प सँवरने दो
मत देख रे भौंरें की सूरत
अन्तर्मना चाह पनपने दो॥…..दरपन को झरोखा बनने दो
सूरतों के दाग उभरने दो
हर छिद्र से बूंद बरसने दो
यौवन उन्मादी दगा दरपन
कलई को तनिक उतरने दो॥…..दरपन को झरोखा बनने दो
जो कहती हैं आँखें कहने दो
दागों का दौरा पसरने दो
बदरंगा न कर उन रंगों को
शाश्वत रूपों को चमकने दो॥…..दरपन को झरोखा बनने दो
कहते जो आईना कहने दो
दिखते जो आईना दिखने दो
जरुरी नहीं दाग बइमान हों
तिल काले रंगा चमकने दो॥…….दरपन को झरोखा बनने दो
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी