माटी की हांड़ी
माटी की हांडी
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जरा सी आग बची थी
चूल्हे में
तो सोचा क्यों इस तपत को
बेकार जाने दूँ
मन तो अनमना सा था
फिर भी उठी, भूतकाल की
अँधेरी गुफाओं से उठा कर लाई
एक माटी की हांडी
चढ़ा तो दी चूल्हे पर
पर अब सोचा इसमें पकाऊं क्या?
शून्य में ताकती रही, सोचती रही
कुछ तो बचा होगा मेरे पास भी
एकाएक याद आया
दौड़ कर अंदर गई
बक्सा खोलकर निकाल लाई
तार – तार छिझ कर छलनी हो चुकी
वो लाल चुनरिया के एक कौने में बंधा था कुछ,
बहुत ही धेर्य (हाँ, एक और चीज़ बची थी मेरे पास बहुत कीमती, मेरा धेर्य) से खोला उस बंधन को
निकाल लिए वो सातों अन्न के दाने उसमे से
एक बारगी उसे देखा कंही घुन तो नही लग गया इनमे भी मेरी हसरतों के जैसा
लेकिन नही, वो जस के तस थे। ( कभी खोलकर देखा ही नही, तभी तो वैसे ही थे आज भी। घुण ना लग जाए कंही इसी भय से खोला ना होगा।)
वेदी के वो सातों दाने, ज्यों एक – एक पल्ले की गाँठ में बांधे थे।
उसी धेर्य के साथ एक – एक उस माटी की हांडी में डाल दिए।
एक चुटकी अश्क – लवण लिया और बची हुई संभावनाओं का बघार दे दिया।
थोड़ी तपत बाकि थी अभी भी, उसको बस इस नमकीन खिचड़ी को पकाने में इस्तेमाल कर लिया।
घंटो देखती रही। बस खाई नही गई।
ठंडी हो चुकी थी अब
खिचड़ी और माटी की हांडी
परवीन चौधरी
9/8/16