ग़ज़ल : कोई सूरत हो ज़िम्मेदारियों की याद रहती है
कोई सूरत हो ज़िम्मेदारियों की याद रहती है
मुझे हर वक़्त अपनी बेटियों की याद रहती है
बड़े शहरों में रहकर भी मैं अपनापन नहीं भूला
मेरे दिल में हमेशा भाइयों की याद रहती है
अकेले हम नहीं रहते हैं आलीशान बंगलों में
हमारे साथ टूटी झुग्गियों की याद रहती है
हवाओं में घुली रहती है तेरे जिस्म की खुशबू
बहारों में तेरी अँगड़ाइयों की याद रहती है
’नज़र’ बचपन में दादी माँ बताया करती थी मुझको
सितारों में कई शहज़ादियों की याद रहती है
— ए. एफ़. ’नज़र’