ओलिंपिक पदक
माँ मुझे मत मारो , मैं जीना चाहता हूँ ।
नहीं मैं तुम्हें जन्म नहीं दे सकती !
क्यों माँ ?? मुझे दुनिया देखने का हक़ नहीं है ।
हक़ तो है लेकिन दुनिया वाले मेरी गलतियों का सजा, तुझे देंगे ।
माँ आपने क्या गलतियाँ की है जो मुझे , उसकी सजा मिलेगा ।
बेटे यह मैं नहीं बता सकती ।
मैं जानती हूँ माँ, पर आप जब मुझे मारना ही चाहती थी तो “लिंग-परीक्षण” क्यों करवाई । लिंग परीक्षण में मैं ‘लड़की’ न होकर ‘लड़का’ हुआ, तो भी आप मुझे मारने पर तुली है क्यों ?
क्योंकि मैं ‘कुँवारी माँ’ हूँ और समाज ऐसे बच्चे को पाप कहते हैं और लोग तुम्हारा अपमान करेंगें और तुम लड़की होते तो जो मेरे साथ हुआ “वो” तुम्हारे साथ भी हो सकता…. था ?
पर “माँ” लोगों को क्यों नहीं बता देती कि ‘ओलंपिक के सेलेक्शन समिति’ में लोग खेल नहीं, ‘देह’ देखते हैं और कैसे आपको ‘यूज़’ किया,
आपके साथ खेला, कैसे आपकी निचुड़ी देह यहीं रह गयी और ‘उनका खेल’ आगे हो गया ?
माँ सोचती रही और अपने ‘पेट’ के उभरे भाग को देखती रही….
कि क्या यही मेरा ओलंपिक पदक है ???
विचारोत्तेजक लघुकथा!