कहानी

“पल्लवी का पल्लू”

यूँ तो कई बसंत देख चुकी है पल्लवी, पर एक भी बसंत उसके जीवन में उत्साह न भर सका। आज वह पैंतीस के चौपाल पर खड़ी है। शायद खुद से पूछ रही है की मेरा बसंत कहाँ है और खुद को जबाब नहीं दे पा रही है। बला की खूबसूरती लिए हुए, हर पल-कुपल को जबाबदारी के साथ सरका रही है। जब वह पंद्रह वर्ष की हो रही थी तभी एक हादसे में उसके पिता के दोनों हाथ शरीर से अलग हो गए। माँ, एक छोटी बहन और छोटा भाई तथा पिता का भार उसके मुलायम कंधे पर आ गया। पढ़ाई छोड़कर उसने कोई भी काम करके रोटी कमाने के हवन में खुद को झोंक दिया। कइयों दरवाजे पर अपने आप को खड़ा किया पर काम से अधिक चाम का महत्त्व देखखर डर गई और लड़की होने का मतलब उसके समझ में आ गया। जरुरत इंसान को निडर बना देता है और उसने हीरा घिसकर रोटी की जरुरत को पूरा करने का फैसला कर लिया। हिरा घिसने की ट्रेनिग लेकर वह रत्नकलाकार बन गई। बीस साल से लगातार हीरा को आकार देने वाली पल्लवी अपने ही आकार को भुला बैठी है। सुबह से शाम तक कंपनी में पुरुषों के साथ बैठकर हीरा तरासती है और रात को खटिये पर खुद को खोजते हुए ढेर हो जाती है। चालीस की उमर में वह पचीस से ज्यादे की नहीं लगती पर बिना शादी के एकल जीवन बिताने का दरपन देखते हुए मायूस हो जाती है। माँ बाप बहुत कहते हैं पर वह ना कर देती है, कहती है कि जब शादी की उमर थी, तब गले के मंगलसूत्र की जगह हीरे ने ले लिया, अब न मंगल है न सूत्र। किसके भरोषे छोड़ दूँ यह परिवार जिसके शर पर भगवान ने मेरा हाथ रखवा दिया है।
उसके साथ के सहकर्मी ही उसके मित्र हैं उन्ही के साथ उठना- बैठना, हँसना- हँसाना, खान-पान और काम में दिन कट जाता है। दीपक उसका पडोसी है उसे तंग भी करता है, भाई मानती है उसे, राखी पर उसने मोबाईल गिफ्ट किया, उसे चिढ़ाने के लिए, जानता है मोबाईल से उसे सख्त नफरत है फिर भी, दीपक ने कहा एक साधारण मोबाईल रख ले जरुरत पर काम आएगा, वह नहीं मानी और तीन महीने दोनों में बात चित न हुई।कहती है इच्छा और आवश्यकता कभी पूरी नहीं होती, फिर ये साधन क्या करुँगी। उसकी छोटी बहन ही उसकी सहेली है जो अब शादी के उमर की हो गई है कहती है बड़ी तुम हो अपना घर बसाने के बाद ही मेरे बारे में ओ तुम्हे अकेले छोड़कर मंडप नहीं सजाने वाली। दोनों की जिद में माँ बीमर हो गई है, लाचार बाप उससे मिन्नते करके किसी तरह शादी के लिए राजी करता है। दीपक अपने मित्र संदीप को उसके घर लेकर जाता है पल्लवी को देखकर हाँ कर देता है। गुमसुम सी पल्लवी अपने पिता को देखते हुए भरभरा जाती है। गहरा सन्नाटा छा जाता है घर में आंसुओं की बरसात हो जाती है। संदीप आगे बढ़कर पल्लवी को उठाता है और सिंदूर की डिब्बी खुल जाती है एक चुटकी सिंदूर पल्लवी को सुहागन बना देता है। सब्र का बांध टूटता है और वह संदीप को बाँहों में धरासायी हो जाती है। एक बार फिर ख़ुशी की बारिस होती है और सन्नाटा छा जाता है। दीपक वही मोबाईल अपनी बहन को देते हुए, राखी दिखाता है, कांपती उंगलियाँ हिलती है और पल्लवी की रिंगटोन बज उठती है उसकी छोटी बहन श्वेता बधाई देती है और बगल के मंदिर में अपनी बड़ी बहन को सभी के साथ आने को कहती है जहाँ उसकी शादी के बेदी पर ख़ुशी का मंडप सजा हुआ है। दीपक सबको लेकर वहां पहुंचता है और दोनों बहनों का फेरा शुरू हो जाता है। पल्लवी आज भी हीरा काम उसी लगन से करती है और संदीप उसका हौसला बढ़ाते रहता है। दीपक दिन में एक बार फोन करके उसे परेशान जरूर करता है जो पल्लवी को अब अच्छा लगता है। आज पल्लवी की बारी थी, दीपक की घंटी बज गई नाम देख चौंक गया, हड़बड़ाहट में, क्या हुआ पल्लवी, जल्दी बोल, तेरा फोन????? , उधर से हँसने की आवाज सुनकर दीपक बोला पगला गई है क्या, जल्दी बता, सब खैरियत तो है। पल्लवी फिर जोर से हँसते हुए, अरे मुरख एक बात कहनी है पर वादा कर किसी से बताएगा नही और मुझे परेशान नहीं करेगा। दीपक खींझकर बोला, जो बोलना है जल्दी बोल, झगड़ा हो गया क्या, संदीप के साथ। लड़ाई तो रोज होती है उसी का परिणाम है, तूं मामा बनने वाला है रे……..और फोन कट जाता है। दीपक की ऑंखें डबडबा जाती हैं, और जोर से चिल्ला उठता है देखो तो काकी मेरी पल्लवी का पल्लू आखिर लहरा ही गया………

महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी

*महातम मिश्र

शीर्षक- महातम मिश्रा के मन की आवाज जन्म तारीख- नौ दिसंबर उन्नीस सौ अट्ठावन जन्म भूमी- ग्राम- भरसी, गोरखपुर, उ.प्र. हाल- अहमदाबाद में भारत सरकार में सेवारत हूँ