मनुष्य शरीर मल-मूत्र बनाने की मशीन सहित ईश्वर प्राप्ति का साधन
ओ३म्
वास्तविक दृष्टि से देखा जाय तो शरीर मल-मूत्र बनाने की एक मशीन ही है। इसको उत्तम-से-उत्तम भोजन या भगवान् का प्रसाद खिला दो तो वह मल बनकर निकल जायगा तथा उत्तम-से-उत्तम पेय या गंगाजल पिला दो तो वह मूत्र बनकर निकल जायगा। जब तक प्राण हैं, तब तक तो यह शरीर मल-मूत्र बनाने की मशीन है और प्राण निकल जाने पर यह मुर्दा है, जिसको छू लेने पर स्नान करना पड़ता है। वास्तव में यह शरीर प्रतिक्षण ही मर रहा है, मुर्दा बन रहा है। इसमें जो वास्तविक तत्व (चेतन) है, उसका चित्र तो लिया ही नहीं जा सकता। चित्र लिया जाता है उस शरीर का, जो प्रतिक्षण नष्ट हो रहा है। इसलिये चित्र लेने के बाद शरीर भी वैसा नहीं रहता, जैसा चित्र लेते समय था। इसलिये चित्र की पूजा तो असत् (‘नहीं’) की ही पूजा हुई। चित्र में चित्रित शरीर निष्प्राण रहता है, अतः हाड़-मांसमय अपत्रित्र शरीर का चित्र तो मुर्दे का भी मुर्दा हुआ।
हम अपनी मान्यता से जिस पुरुष को महात्मा कहते हैं, वह अपने शरीर से सर्वथा सम्बन्ध विच्छेद हो जाने से ही महात्मा है, न कि शरीर से सम्बन्ध रहने के कारण। शरीर को तो वे मल के समान समझते हैं। अतः महात्मा के कहे जाने वाले शरीर का आदर करना मल का आदर करना हुआ। क्या यह उचित है? यदि कोई कहे कि जैसे भगवान् के चित्र की पूजा आदि होती है, वैसे ही महात्मा के चित्र की भी पूजा आदि की जाय तो क्या आपत्ति है? तो यह कहना भी उचित नहीं है। कारण कि भगवान् का शरीर चिन्मय एवं अविनाशी होता है, जबकि महात्मा का का कहा जाने वाला शरीर पांचभौतिक होने के कारण जड़ एवं विनाशी होता है।
यह विचार सनातनी विद्वान श्रद्धेय श्री रामसुख दास जी के हैं। वेदों में ईश्वर को अकायम अर्थात् शरीर रहित कहा है। काया, शरीर व आकृति का चित्र ही बन सकता वा हो सकता है। ईश्वर निराकार व सर्वव्यापक होने से उसका चित्र बनना सर्वथा असम्भव है। वेदों के अनुसार ईश्वर महान पुरुष है। ‘वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमात्यिवर्णं तमसः परस्तात्। तमेव विदित्वातिमृत्युमीति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय।’ (यजुर्वेद 31/18) ईश्वर महान पुरुष है तथा सूर्य के समान तेजस्वी वर्ण वा रंग वाला है। वह अन्धकार से सर्वथा रहित प्रकाशस्वरुप है। उसे जानकर ही मनुष्य मृत्यु का अतिक्रिमण कर सकता है अर्थात् मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। उसे प्राप्त व जानने का अन्य कोई मार्ग नहीं है।
वैदिक मान्यताओं के अनुसार मनुष्य का शरीर मल-मूत्र की मशीन होते हुए भी ईश्वर प्राप्ति का साधन है अतः इसे स्वस्थ व साधना योग्य बना कर रखना प्रत्येक जीवधारी मनुष्य का मुख्य कर्तव्य है। यदि शरीर स्वस्थ न हो तो मनुष्य साधना नहीं कर पायेगा और फिर अपने साध्य ‘ईश्वर’ की प्राप्ति न होने से यह जीवन व्यर्थ जा सकता है। अतः एक ओर जहां शरीर जड़, पंचभौतिक होने के साथ मल-मूल बनाने की मशीन है, वहीं यह ईश्वर प्राप्ति का साधन भी है। शरीर की उपेक्षा न कर ईश्वर प्राप्ति में इसका सदुपयोग करना ही मनुष्य जीवन का प्रयोजन है। यह भी विशेष ध्यान करने योग्य है कि ईश्वर के साथ-साथ मनुष्य को समाज व राष्ट्र के प्रति भी अपने कर्तव्यों का ध्यान रखते हुए उन्हें भी पूरा करना चाहिये। इसके लिए महर्षि दयानन्द का जीवन एक आदर्श उदाहरण है। यजुर्वेद के मन्त्र ‘कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः’ एवं ‘विद्या चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयं ‘विद्या चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह’ भी अपने, परिवार व समाज सहित देश के प्रति कर्तव्य-कर्मों को करने का सन्देश देते हैं।
–मनमोहन कुमार आर्य
मनमोहन भाई , लेख अच्छा लगा लेकिन इस लेख के हिसाब से मैं तो एक पापी इंसान हूँ क्योंकि हर दम पेसीमिस्ट सोच मुझ से नहीं हो सकती .
नमस्ते एवम हार्दिक धन्यवाद् आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। मुझे लगता है कि पापी तो किसी न किसी रूप में हम सब ही हैं। ईश्वर को जानना, उसको अपने मन वा ह्रदय में जानकार उसका चिंतन, मनन व ध्यान करना ही उसकी पूजा है। यदि आप कुछ देर ॐ वा ओम एवम गायत्री मंत्र का उच्चारण भी अर्थ सहित कर लेते हैं तो यह भी ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना हो जाती है। यदि आप यह काम अर्थात जप एक मिनट से लेकर आधा व एक घंटे कर लेते हैं तो इससे हमारी ईश्वर से गहरी मित्रता हो सकती है। इससे हम अपने अगले अच्छे जन्म के कुछ कुछ अधिकारी हो सकते हैं। यदि मेरी बात ठीक न लगे तो कृपया न माने। मेरा कोई दुराग्रह नहीं है। मेरी दृष्टि में आप अनेक अच्छे काम करते हैं, अतः आप पुण्यात्मा सिद्ध होते हैं। जिस पर जिस दिन ईश्वर की कृपा हो जाती है तो वह स्वमेव ईश्वर का भक्त बन जाता है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि वह दिन हमारी जिंदगी में शीघ्र आये। सादर।