कविता
आज ज़माने में मानवता पर जहर सा फैला है,
दफ्तर का बाबू कहता है बदन तुम्हारा मैला है,
जाओ अभी तुम वेश ये अपना कल बदलकर फिर आना,
ये हमारा मंदिर है ना दफ्तर के मंदिर आना,
वेश बदल दूंगा पर मुझको ये चिंता अब सता रही,
कल देश का क्या भविष्य होगा इतना बता रही,
है नसीब में चंद हिस्से ही वो भी सारा हड़प रही,
देश के मेले वेश को बदलो जिस पर दीमक पनप रही,
चला नहीं जाता है काफी बदलाव लगता चाल में,
अब घुटनों में दर्द होता है और तकलीफ है वाल में,
साहब मेरा काम करो बेटी की शादी करनी है,
उसकी झोली में मुझको अब खुशियाँ ढ़ेरों भरनी है,
अब सरकारी पथ पर मुझको अस्पताल भी जाना है,
थोड़ी ठोकरे और बाकि है उनको भी तो खाना है|
— कवि योगेन्द्र जीनगर “यश”,राजसमंद, राजस्थान
बढ़िया अभिव्यक्ति !