मैं अब चुप रहूंगी
मैं अब चुप रहूंगी
न करुँगी कोई गिला
न ही कोई शिकवा
और न शिकायत करुँगी
कि मैं अब चुप रहूंगी….
देखूंगी बस चुपचाप
रोज बदलते हुए तुमको
पर अपने लब सी लूँगी
कि मैं अब चुप रहूंगी….
खामोशियों से जान लेना
मेरे दिल के राज़ तुम
मैं अब मौन न तोड़ूँगी
कि मैं अब चुप रहूंगी….
सिसकता हो दिल अंधेरों में
या आखों से शोले टपकते हों
मै खामोशियों को ओढ़ लूँगी
कि मैं अब चुप रहूंगी….
चाहे सपने टूट जाए मेरे
चाहे अपने रूठ जाएँ मेरे
पर अब न तुम्हें सदा दूंगी
कि मैं अब चुप रहूंगी…..
प्रिय सखी प्रिया जी,
खामोशियों से जान लेना
मेरे दिल के राज़ तुम.
बहुत खूब, एक भावपूर्ण, सटीक एवं सार्थक रचना के लिए आभार.
बहुत ही मर्मस्पर्शी कविता !
बहुत ही मर्मस्पर्शी कविता !
चाहे सपने टूट जाए मेरे
चाहे अपने रूठ जाएँ मेरे
पर अब न तुम्हें सदा दूंगी
कि मैं अब चुप रहूंगी….. बहुत खूब .
बढ़िया कविता !